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श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष: नन्द के आनन्द भयो जय कन्हैया लाल की

भगवान श्रीकृष्ण और राधा जी।









भगवान श्रीकृष्ण पूर्ण प्रेम के प्रतीक हैं। हमारी भारतीय संस्कृति में कृष्ण का जन्मदिवस जिसे हम जन्माष्ठमी के नाम से मनाते आए हैं। उनका जन्मदिन लोगों में उत्साह, उल्लास और उमंग भर जाता है। वे हमारी संस्कृति की धुरी हैं।
भगवान श्री कृष्ण निष्काम कर्मयोगी, एक आदर्श दार्शनिक, स्थितप्रज्ञ एवं दैवी संपदाओं से सुसज्जित महान पुरुष हैं। उनका जन्म द्वापरयुग में हुआ। उनको इस युग के सर्वश्रेष्ठ पुरुष युगपुरुष या युगावतार का स्थान दिया गया है।
श्रीकृष्ण सोलह कलाओं से पूर्ण अवतारी हैं। अत्याचार और अनाचार भरे युग में अधर्म के नाश व धर्म की स्थापना के लिए वे माता देवकी व वासुदेव के यहां प्रकट होते हैं। उनका जीवन अनेक पड़ावों से होकर गुजरता है।
भारत भूमि पर धर्म की रक्षा के लिए वे जन्म लेते हैं। उन्होंने जीवन की हर कठिनाई से डटकर मुक़ाबला किया। मनुष्य का जीवन जब झंझावतों से भर जाता है, चारों ओर निराशा का माहौल दिखता है, जिंदगी नीरस लगने लगती है, तब उनके उपदेश एक नया रास्ता दिखाते हैं।
आज भी उनके आदर्श हमारे जीवन की डूबती पतझार में एक सहारा हैं। भगवान श्री कृष्ण हर चुनौती व विषमता का सामना सहजता के साथ करते हैं। वे हर कठिनाई में सम रहते हैं और हमें बेहतर जीवन का संदेश देते हैं।
श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व अद्भुत और अकल्पनीय हैं। वह दिव्य तेज व सभी शक्तियों से पूर्ण हैं। उन्होंने असंभव को संभव कर दिखाया। उन्होंने अपने बचपन में पूतना, वकासुर, नरकासुर जैसे असुरों का वध किया। कंस, शिशुपाल, जरासंध जैसे दुष्टों का नाश श्रीकृष्ण ने उनका वध करके किया। आसुरी शक्तियां उनका कुछ भी नहीं कर पाईं।
भगवान श्रीकृष्ण प्रेम, शौर्य एवं तेज की पराकाष्ठा हैं और भारतीय ऋषि परम्परा के दैदीप्यमान सूर्य हैं।
हम सबको प्रेम, शौर्य और पूर्णता के प्रतीक पूर्ण पुरुष का जन्म दिवस "श्रीकृष्ण जन्माष्टमी" पर इनके व्यावहारिक शिक्षण के चिंतन-मनन व ध्यान-धारणा का पावन अवसर है।
विशिष्ट ग्रह नक्षत्रों की स्थिति के साथ युक्त इन विशेष घड़ियों में किया गया आध्यात्मिक पुरुषार्थ अपना महत्व रखता है। जन्माष्टमी के कर्मकांड के साथ श्रीकृष्ण के जीवन संदेश की एक प्रकाश किरण भी यदि अंतःकरण के अंधेरे कोने-कांतरों में अवतरित हो सकी, तो समझो जीवन पूर्णता के पथ पर ठोस कदम के साथ आगे बढ़ चला और आयोजन के पीछे का उद्देश्य सफल हो चला।
गीता में कृष्ण अर्जुन से कहतें हैं कि लड़ो, परंतु परमात्मा के समक्ष पूर्ण समर्पण कर के लड़ो। वाहन बन जाओ। अब समर्पण का अर्थ है परम जागरूकता, अन्यथा तुम समर्पण नहीं कर सकते। समर्पण का अर्थ है अहंकार को गिरा देना, अहंकार तुम्हारी अचेतना है।
कृष्ण कहतें हैं कि अहंकार को गिरा दो और परमात्मा पर छोड़ दो। फिर उनकी मर्जी से होने दो। फिर जो कुछ भी हो, सब अच्छा है।
लेकिन, अर्जुन विवाद करतें हैं। बार-बार वे नए तर्क खड़े करते हैं और कहतें हैं कि इन लोगों को मारना-- जो निर्दोष हैं, इन्होंने कुछ गलत नहीं किया है--बस एक राज्य के लिए इतने लोगों की हत्या करना, इतनी हिंसा, इतनी हत्या, इतना रक्तपात, यह सही कैसे हो सकता है? एक राज्य के लिए इन लोगों की हत्या करने के बजाए मैं सब कुछ त्याग कर किसी जंगल में जा कर एक भिक्षु बन जाना पसंद करूंगा।
अब, यदि तुम बस बाहर से देखोगे, अर्जुन तुम्हें कृष्ण से ज्यादा धार्मिक नजर आएंगे। अर्जुन कृष्ण से ज्यादा गांधीवादी नजर आएंगे। कृष्ण बहुत खतरनाक दिखाई देते हैं। वे कह रहें हैं कि यह भिक्षु बनने और हिमालय की गुफाओं की तरफ पलायन करने की मूर्खता गिरा दो। यह तुम्हारे लिए नहीं है। तुम सब परमात्मा पर छोड़ दो।
तुम कोई निर्णय ना लो, तुम सब निर्णय लेना गिरा दो। तुम बस शांत हो जाओ, सब छोड़ दो और उसे तुम में प्रविष्ट हो जाने दो, और उसे तुम्हारे द्वारा बहने दो। उसके बाद जो भी हो... यदि वह तुम्हारे निमित्त भिक्षु बनना चाहता है, तो वह भिक्षु बन जाएगा। यदि वह योद्धा बनना चाहता है, तो वह योद्धा बन जाएगा।
अर्जुन ज्यादा नैतिकवादी और निष्ठावादी दिखते हैं। कृष्ण बिल्कुल इसके विपरीत दिखते हैं। कृष्ण एक बुद्ध हैं, एक जागृत आत्मा हैं। वह कह रहें हैं, तुम कोई निर्णय मत लो। तुम्हारे अचेतन से जो भी निर्णय तुम लोगे गलत होने वाला है, क्योंकि अचेतन ही गलत है। और एक व्यक्ति अचेतन में जीता है। यदि वह अच्छा भी करना चाहे तो, वास्तव में वह बुरा करने में ही सफल होता है।
श्रीकृष्ण का माखन से खूब लगाव है और उनकी लीला में इसका विशेष स्थान है। माखनचोर तथा चित्तचोर के रूप में श्रीकृष्ण का बखूबी वर्णन मिलता है। माखन दूध जमाने के बाद दही को मथ कर निकला सारतत्व है, लेकिन फिर माखन को अलग रखना जरूरी है। माखन स्वभाव में पौष्टिक व हल्का होता है। वह दूध में डूबता नहीं, तैरता रहता है। इसी तरह मन रूपी दूध के मंथन से निकला नवनीत स्थिर बुद्धि या विवेक के रूप में प्रकट होता है। यह माखन स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहतर है।
भगवान श्री कृष्ण प्रेम और रण में अलग-अलग भूमिका निभाते हैं। गोपियों के साथ महारास और राजनीति के घोर कर्म श्रीकृष्ण ही एक साथ निभा सकते हैं। ग्वालों के सखा, उधव के आचार्य, सुदामा के मित्र, अर्जुन के सारथी और कुशल कुटनीतिज्ञ। जीवन की हर भूमिका में पूर्णता, यह एक विरल भाव भूमिका है। संसार में रहते हुए भी अनासक्त भाव से कुशलतापूर्ण कर्म, यह श्रीकृष्ण का परिचय है।
महाभारत के युद्ध क्षेत्र में गीता के माध्यम से अनासक्त कर्म का यही संदेश मानवता के लिए प्रकट होता है। कर्मयोग का यह शिक्षण शायद दुनिया के लिए श्रीकृष्ण की सबसे बड़ी देन है। जीवन की चुनौतियों से पलायन किए बिना, छद्म धर्म या अध्यात्म का लबादा ओढ़े बिना, घर-परिवार, संसार में रहते हुए अपने कर्तव्य-कर्मों का बखूबी निर्वाह श्रीकृष्ण का सुंदरतम एवं व्यावहारिक संदेश है। तमाम विषमताओं के बीच मानसिक संतुलन खोए बिना स्थित प्रज्ञता का आदर्श श्रीकृष्ण का मौलिक जीवन दर्शन है।

अंत में चंद पंक्तियां कृष्ण के जीवन से प्रेरित होकर-
सदी के कृष्ण-अर्जुन हम, सदी के राम-लक्ष्मण हम।
भले रणक्षेत्र कोई हो सफलता हम ही पाएंगे।।

✍️ रघुनाथ सिंह


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