इन दिनों अगर आप सोशल मीडिया पर ज़रा भी एक्टिव हैं, तो आपने ज़रूर देखा होगा कि "सैयारा" नामक कोई फिल्म ऐसी छाई है जैसे स्कूल की कैंटीन में समोसे मुफ्त में बंट रहे हों।
इस फिल्म का इतना क्रेज है कि मानो ये देखी नहीं तो सीधे स्वर्ग का टिकट कैंसिल हो जाएगा और नरक में आपको खौलते हुए गर्म तेल में तला जायेगा, वो भी बिना ब्रेक के लगातार।
सच बताऊं तो, मैंने अब तक इस फिल्म को नहीं देखा। वास्तव में थियेटर में जाकर इस फिल्म को देखने का कोई इरादा भी नहीं है। क्योंकि मेरा दिल अब भी सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों के उन पंखों में अटका है जो बिना हिले भी आवाज़ करते हैं।
लेकिन सोशल मीडिया पर पर जो तमाशा चल रहा है, वो देखकर लग रहा है कि या तो मैं बहुत ही बासी किस्म का मनुष्य हूं या फिर बाकी दुनिया ज़रा ज़्यादा ही Acting Class से पास आउट है।
एक साहब वीडियो में रोते-रोते इतने डूबे कि लगा अभी स्क्रीन से निकलकर ‘सैयारा’ के पायलट को गले लगा लेंगे।
दूसरी तरफ एक मैडम तो थिएटर की कुर्सी से चिपककर ऐसे चिल्ला रही थीं जैसे उनकी पुरानी गुम हुई टेडीबियर वापस मिल गई हो। कोई गला फाड़ रहा है, कोई आंखों से आंसुओं की नदियां ही नहीं बल्कि गंगा बहा रहा है।
नाटक ऐसा कि अगर ‘नाट्यशास्त्र’ के लेखक भरतमुनि ये देख लेते तो खुद अपना ग्रंथ फाड़ डालते।
अब सुनिए, जो लोग फिल्म देखकर लौटे हैं, उनका कहना है कि हां, फिल्म ठीक-ठाक है। न बहुत शानदार, न बहुत बेकार। यानी वही ‘न माया मिली, न राम’। लेकिन गानों की तारीफ ज़रूर हर जगह सुनने को मिल रही है।
वैसे भी आजकल किसी फिल्म का हिट होना अब अभिनय या कहानी पर नहीं, इंस्टाग्राम की रील की संख्या पर निर्भर करता है।
मज़े की बात तो ये है कि इस फिल्म का सारा क्रेज उस नयी नस्ल के किशोरों में दिख रहा है, जिन्हें इंटरनेट की भाषा में 'निब्बा-निब्बी' कहा जाता है।
यानी वो प्राणी जो रिश्ते में तो दोस्त होते हैं, लेकिन सोशल मीडिया पर एक-दूसरे को ‘जान’ कहकर रोज ब्रेकअप करते हैं और फिर उसी "जान" के लिए पोस्ट डालते हैं-
"प्यार एक बार होता है, सच्चा प्यार बार-बार होता है!"
इन निब्बा-निब्बियों का सैयारा से प्रेम कुछ ऐसा है जैसे बिल्ली को दूध से और ऊपर से अगर वो दूध अमूल का हो तो फिर कहना ही क्या!
थिएटर में जाकर ये लोग ऐसा अभिनय कर रहे हैं जैसे फिल्म नहीं देख रहे, खुद का ब्रेकअप झेल रहे हों।
एक लड़का तो रोते-रोते इतना कांप रहा था कि एक पल को लगा उसकी बैटरी लो हो गई है।
इस पूरे तमाशे को देखकर मुझे वर्ष 2013 की "आशिकी 2" फिल्म की याद आ गई। वही जब आदित्य रॉय कपूर बारिश में भीगते हुए ब्लेजर पहनकर इमोशनल डायलॉग मार रहे थे।
श्रद्धा कपूर ऐसे रो रही थीं जैसे बोर्ड परीक्षा में Maths का पेपर लीक हो गया हो। उस समय भी ऐसा ही जनून था। फर्क सिर्फ इतना था कि तब इंस्टाग्राम नहीं था, न फ्री डेटा का बवाल। वरना तब भी हर नुक्कड़ पर कोई अपना दिल टूटा हुआ लेकर बैठा होता।
मैं खुद उस दौर में नोकिया के पुराने फोन में दिन-रात "मेरी आशिकी अब तुम ही हो" गाना रिपीट मोड पर बजता था। क्यों? क्योंकि दोस्तों ने सुना, उन दोस्तों ने किसी और से सुना, उन्होंने इसलिए क्योंकि उनके दोस्तों ने सुना।
बस, हर कोई एक-दूसरे को कॉपी कर रहा था। यही साइकोलॉजिकल लूप अब "सैयारा" के साथ दोहराया जा रहा है।
अब आप ज़रा सोचिए, फिल्म को देखने की वजह कहानी, अभिनय या निर्देशन नहीं बल्कि सिर्फ ये है कि बाक़ी सब देख रहे हैं।
जैसे शादी में जाने की असली वजह खाना होता है, प्यार से तो सब कहते हैं, “अरे, आशीर्वाद देने जाना है।”
दरअसल, ये सब एक ‘एस्थेटिक इमोशनल पाखंड’ है। इन वैरायटी बच्चों को बस एक बहाना चाहिए दिल को तोड़ने का और दिल को जोड़ने का।
और फिल्म तो बहाना है, असली ड्रामा तो थिएटर में होता है, जब कोई अपनी एक्स की याद में कुर्सी से सर पटकता है।
मजेदार बात तो यह है कि कोई मोबाइल कैमरे में खुद के आंसुओं को कैद करके स्टोरी में डालता है – "Healing 💔" म्यूजिक के साथ।
मैं तो कहता हूं कि ऐसे लोगों के लिए थिएटर के बाहर बाकायदा एक 'रोने का कोना' बना देना चाहिए, जहां tissues papers, गुलाबजल और मिर्ची लगी चाय का बंदोबस्त हो।
ताकि जब ये नाटक पूरा हो तो एक-दूसरे को गले लगाकर कहें, “भाई, तू ही असली सैयारा है।”
बहरहाल, जो लोग फिल्म देखकर भावुक हो रहे हैं, उनके जज़्बातों का सम्मान है। मेरी ओर से उन्हें हृदय की अनंत गहराइयों से साधुवाद। आखिर इंसान ही तो हैं, भावना में बह जाते हैं।
अंत में, “सैयारा” मेरे लिए सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि एक लिटमस टेस्ट है, कौन दर्शक है और कौन ड्रामेबाज़!
जब OTT पर आएगी, तब देख लेंगे। तब तक इन निब्बा-निब्बियों का थिएटर-लीला देखिए और सोचिए कि अगली बार आप सैयारा के पोस्टर को देखकर रो रहे हैं या टिकट का रेट देखकर।
ना काहू काहू से दोस्ती ना काऊ से बैर।
बस यूंही रघुनाथ
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