शब्द शब्द ही छुपा है ब्रह्म संचार,
नाद में है सृष्टि और मौन में संसार।
वाणी ऐसी हो आत्मा को छू जाए,
ऐसी ना जो अहंकार में डूब जाए।
धरा को चाहिए शीतल वर्षा का प्रेम,
क्रोध की बाढ़ से तो मिट्टी भी हो जाती क्षीण।
शब्दों में हो तपस्या, जैसे ऋषियों की दृष्टि,
हर शब्द बने यज्ञ, हर भाव में सृष्टि।
जो चिल्लाते हैं, वे भीतर से खोखले होते हैं,
जो मौन रहते हैं, वे ब्रह्म से भी ऊपर होते हैं।
ध्वनि सीमित है, अनाहद नाद अनंत है,
जहाँ शब्द नहीं, वहाँ आत्मा का संतुलन तंत है।
तो
मत ढूँढो शक्ति को गरजती आवाज़ों में,
ढूँढो उन शब्दों में जो मौन से जन्मे हैं।
क्योंकि
वाणी वह हो जो भीतर उतरे,
और मौन वह हो जो प्रभु से जोड़
बस यूंही रघुनाथ
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