जनाब मुनव्वर राना साहब का बीते रोज़ इंतेक़ाल हुआ। कई दोस्तों ने ज़ाती पैग़ाम में मुझसे इल्तिजा की कि मैं उन पर कुछ लिखूँ। मुझमें उनकी शाइ'री की तन्क़ीद करने की ताब तो नहीं है, पर उनसे जुड़ी एक याद है, सो वही पेश करता हूँ। मुनव्वर राना से मेरी एक मुख़्तसर मुलाक़ात हुई थी। मेरी पत्रकारिता का शुरुआती दौर था ।यह साल २०१० था, जब वो आगरा आए थे। आगरा के सूर सदन के एक जलसे में उन्होंने शे'र पढ़ने थे। सुबह प्रेस कॉन्फ्रेंस थी। दोनों की ही रिपोर्टिंग मेरे ज़िम्मे थी। उस समय मुनव्वर राना एक चढ़ता हुआ नाम था। बशीर बद्र, निदा फ़ाज़ली, वसीम बरेलवी, मंज़र भोपाली वग़ैरा की क़तार में उनका ज़िक्र किया जाने लगा था। मैं वक़्त से पहले प्रेस कॉन्फ्रेंस में पहुँच गया। रिपोर्टर लोग नहीं आए थे, पर मुनव्वर साहब वहाँ एक कुर्सी पर बैठे थे। मैंने उनको पहचाना नहीं, क्योंकि तब तक नाम ही सुना था शक्ल नहीं देखी थी। इंटरनेट से पहले के ज़माने में यह आम था कि आप किसी को ख़ूब जानते हों, पर शक्ल कभी न देखी हो। वो बेनिशान चेहरों का दौर था। मुझे किसी ने इशारे से बतलाया कि मुनव्वर साहब वो हैं। उन्होंने वो इशारा देख लिया ...
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