ध्वनि (साउण्ड) एक निश्चित भौतिक प्रक्रिया है और जिस प्रकार प्रकृति और प्राणि जगत में प्रकाश और गर्मी का प्रभाव होता है। उससे उनके शरीर बढ़ते, पुष्ट और स्वस्थ होते हैं। उसी प्रकार ध्वनि में भी तापीय और प्रकाशीय ऊर्जा होती है और वह प्राणियों के विकास में इतना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है, जितना अन्न और जल। पीड़ित व्यक्ति के लिए तो संगीत उस रामबाण औषधि की तरह है, जिसका श्रवण पान करते ही तात्कालिक शांति मिलती है।
लोग कहेंगे यह भावुक अभिव्यक्ति मात्र है, किन्तु वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं ने संगीत की उन विलक्षण बातों का पता लगाया है, जो मनुष्य शरीर में शाश्वत चेतना को और भी स्पष्ट प्रमाणित करती है। इस सम्बन्ध में अन्नामलाई विश्वविद्यालय में वनस्पति शास्त्र के विभागाध्यक्ष डा. टी० सी० एन॰ सिंह और उनकी सहयोगिनी कुमारी स्टेला पुनैया के वनस्पति और प्राणियों पर किये गये संगीत के परीक्षण बहुत उल्लेखनीय है। सच बात तो यह है कि ईश्वर, आत्मा, जीवन व्यवस्था, समाज व्यवस्था पर अनेक लोग अनेक जातियों के अनेक मत हो सकते हैं, किन्तु संगीत की उपयोगिता और सम्मोहिनी शक्ति पर किसी भी देश के किसी भी व्यक्ति को विरोध नहीं। शायद ही कोई ऐसा अपवाद हो, जिसे संगीत, वाद्य और नृत्य अच्छे न लगते हों। मानव का संगीत के प्रति स्वाभाविक प्रेम ही इस बात का प्रमाण है कि वह कोई नैसर्गिक तत्त्व और प्रक्रिया है।
उपनिषद् कहते हैं-
ब्रह्म प्रणव संधानं नादो ज्यातिर्भयः शिवः स्वयमाविर्भ वेदात्मा मेधापायेंऽशुमानिव सिद्धासने स्थितो योगी मुद्राँ संधाम वैष्णवीम् शृणुयाद्दक्षिणे कर्णे नादभर्न्तगतं तदा अभ्यस्यमानो नादोऽयं ब्रह्यमाबृगुते ध्वनिम् पक्षाद्धिपक्षखिलं जित्वा तर्यपदं ब्रजेत।
- नाद्बिंदूपनिषद् 30। 31।32,
वत्स! आत्मा और ब्रह्म की एकता का जब चिन्तन करते हैं तब कल्याणकारी ज्योति स्वरूप परमात्मा का नाद रूप में साक्षात्कार होता है। (यह संगीत ध्वनि बहुत मधुर होती है।) योगी को सिद्धासन से बैठकर वैष्णवी मुद्राधारण कर अनाहत ध्वनि को सुनना चाहिये। इस अभ्यास से बाहरी कोलाहल शून्य होकर अन्तरंग तुर्य पद प्राप्त होता है।
उपरोक्त कथन में संगीत और ब्रह्म का सायुज्य प्रतिपादित किया गया है, इसलिए उसके अभ्यास से निःसन्देह मानव आत्मा में उन शक्तियों और गुणों का विकास संभव है जो परमात्मा में है। “जीवन भर जीवित बने रहिये” (स्टे अलाइव आल योर लाइफ) के लेखक नार्मन बिन्सेन्ट पील नामक विद्वान् ने इस पुस्तक में मृत्यु के उपरान्त जीवन की शास्त्रीय पुष्टि के अनेक महत्त्वपूर्ण उद्धरण दिये हैं- उन्होंने लिखा है कि “मुझे एक नर्स ने जिसने अनेकों व्यक्तियों को मरते देखा था, बताया कि मृत्यु के क्षणों में जीवन को कुछ अलौकिक दर्शन और श्रवण होता है। कुछ मरने वालों ने बताया कि उन्हें आश्चर्यजनक ज्योति और संगीत सुनाई दे रहा है।
यह दो उद्धरण संगीत को जीवन का शाश्वत उपदानं ही प्रमाणित करते हैं पर प्रश्न यह हो सकता है साधारण गायक और श्रोता, नृत्य या अभिनय द्वारा अपनी चेतना को लय में बाँधने वाला उस असीम सुख को प्राप्त क्यों नहीं करता। दरअसल यह विषय मन की तन्मयता से सम्बन्धित है पर उतनी तन्मयता न हो तो भी संगीत का मनुष्य के मस्तिष्क, हृदय और शरीर पर विलक्षण प्रभाव अवश्य होता है और उससे मूल चेतना के प्रति आकर्षण और अनुराग ही बढ़ता है। नास्तिक स्वभाव से जितने रूखे और कटु होते हैं, यह एक विलक्षण सत्य है कि उन्हें संगीत से उतना ही कम प्रेम होता है। कला के प्रति अनुराग ही अध्यात्म की प्रथम सीढ़ी है। ऐसे व्यक्ति में भावनायें होना स्वाभाविक ही है।
देखा गया है कि शरीर में प्रातः काल और सायंकाल ही अधिक शिथिलता रहती है उसका कारण प्रोटोप्लाज्मा की शक्ति का ह्रास है। यों प्रातः काल शरीर थकावट रहित होता है पर पिछले दिन की थकावट का प्रभाव आलस्य के रूप में उभरा हुआ रहता है। प्रोटोप्लाज्मा जिससे जीवित शरीर की रचना होती है, इन दोनों समयों में अस्त-व्यस्त हो जाता है, उस समय यदि भारी काम करें तो शिथिलता के कारण शरीर पर भारी दबाव पड़ता है और मानसिक खीझ और उद्विग्नता बढ़ती है। थकावट में ऐसा हर किसी को होता है। यदि कोई गर्म-गर्म पदार्थ खाये जो कुछ क्षण के लिये प्रोटोप्लाज्मा के अणु तरंगायित तो होते हैं पर वह तरंग उस तूफान की तरह तेज होती है, जो थोड़ी देर के लिये सारे पेड़-पौधों को झकझोर कर रख देती है। उसके बाद चारों ओर सुनसान भयानकता-सी छा जाती है, उत्तेजक पदार्थों के सेवन से ड़ड़ड़ड़ में बुद्धि विनम्र और रात में दुःस्वप्न शारीरिक प्रोटोप्लाज्मा प्रकृति में इसी तरह के तूफान का प्रभाव होता है, इसलिये इस समय नशापान स्वास्थ्य को बुरी तरह चौपट करने वाला होता है।
संगीत की लहरियाँ शिथिल हुए प्रोटोप्लाज्मा की उस तरह की हल्की मालिश करती है, जिस तरह किसी बहुत प्रियजन के समीप आने पर हृदय में मस्ती और सुहावना पन छलकता है, इसलिये प्रातः काल का संगीत जहाँ शरीर को स्फूर्ति और बल प्रदान करता है, हृदय, स्नायुओं, मन और भावनाओं को भी स्निग्धता से आप्लावित कर देता है। इसलिये प्रातः काल और सायंकाल दो समय तो प्रत्येक व्यक्ति को गाना, प्रार्थना पुकारना अवश्य चाहिये। सामूहिक कीर्तन और भजन बन पड़े तो और अच्छा अन्यथा किसी भी माध्यम से सरस और भाव प्रधान गीत तो इस समय अवश्य ही सुनना चाहिये।
डा. सिंह ने दस वर्ष तक एक बाग को दो हिस्सों में बाँटकर एक परीक्षण किया। एक हिस्से के पौधों को कु. स्टैला पुनैया वायलिन बजाकर गीत सुनाती दूसरे को खाद, पानी, धूप की सुविधायें तो समान रूप से दी गई किन्तु उन्हें स्वर-माधुर्य से वंचित रखकर दोनों का तुलनात्मक अध्ययन किया। जिस भाग को संगीत सुनने को मिला उनके फूल पौधें सीधे, बने, अधिक फूल, फलदार सुन्दर हुए। उनके फूल अधिक दिन तक रहे और बीज निर्माण द्रुतगति से हुआ। डा. सिंह ने बताया कि वृक्षों में प्रोटोप्लाज्मा गड्ढे भरे द्रव की तरह उथल-पुथल की स्थिति में रहता है, संगीत की लहरियाँ उसे उस तरह लहरा देती है, जिस तरह वेणुनाद सुनकर सर्प प्रसन्नता से झूमने और लहराने लगता है। मनुष्य शरीर में भी ठीक जैसी ही प्रति का होती है। गन्ना, चावल, शक्कर जैसे मोटे अनाजों पर जब संगीत अपना चिरस्थायी प्रभाव छोड़ सकता है तो मनुष्य के मन पर उसके प्रभाव का तो कहना ही क्या?
कनाडा के किसान अपने खेतों के चारों ओर लाउड स्पीकर लगाकर रखते हैं, उनका सम्बन्ध रेडियो से जोड़ दिया जाता है और संगीत कार्यक्रम प्रसारण प्रारम्भ कर दिया जाता है। देवातोसा (विस्कानिसन) के संगीत शक्ति के व्यापक शोधकर्ता श्री आर्थरलाकर का कहना है कि संगीत से जिस तरह पौधों को रोगाणुओं की रोग-निरोधक-शक्ति का विकास भी किया जा सकता है।
गाना-नाचना गीत-संगीत निश्चित रूप से प्रसन्नता की वृद्धि करते हैं, यह शरीर की स्थूल प्रक्रिया है। संगीत को हृदय और भावनाओं में उतार लेने से तो मनुष्य का आत्मिक काया-कल्प ही हो सकता है। संगीत एक प्रकार की स्वर साधना और प्राणायाम है जिससे शरीर के भीतरी अवयवों का व्यायाम भी होता है और आक्सीजन की वृद्धि भी, फलस्वरूप पाचन-शक्ति गहरी नींद, चौड़ी छाती और हड्डियों की मजबूती का स्थूल लाभ तो मिलता ही है। दया, प्रेम, करुणा, उदारता, क्षमा, आत्मीयता सेवा और सौजन्यता के भावों का तेजी से विकास होता है यह सद्गुण अपनी प्रसन्नता और आनन्द का कारण आप है, वैसे ऐसे व्यक्ति के लिये साँसारिक प्रेम और सहयोग का भी अभाव नहीं रहता।
संगीत का अब सम्मोहिनी विद्या के रूप में विदेशों में विकास किया जा रहा है। अनेक डाक्टर सर्जरी जैसी डाक्टरी आवश्यकताओं में संगीत की ध्वनि-तरंगों का उपयोग करते हैं, अमेरिका में बड़े स्तर पर संगीत की सृजनात्मक शक्ति की खोज की जा रही है। वहाँ के वैज्ञानिक ध्वनि-तरंगों के माध्यम से न केवल विश्व-संसार प्रणाली को सरल और सर्वसुलभ बना रहे हैं वरन् उसके माध्यम से अनेक रहस्यों का पता लगा रहे हैं, अन्तरिक्ष यात्रा से लौटे सभी यात्रियों ने बताया कि ऊपर पृथ्वी के घूमने की आवाज बहुत मधुर सुनाई देती है। कदाचित कण-शक्ति या आत्मिक स्थित का ऐसा विकास किया जा सके, जबकि प्रत्येक ग्रह की गति-ध्वनि उसमें निवास करने वाले प्राणियों का कोलाहल उस प्रकार सुना जा सके, जिस तरह किसी मेले के बाहर खड़े होकर वहाँ की ध्वनि सुनी जाती है तो वह स्थिति जीव के लिये कितनी सुखद और तन्मयता की होगी, उस सम्बन्ध में मनुष्यता की साधारण बुद्धि कल्पना भी नहीं कर सकती, उस शक्ति का परिचय पाना तो और भी कठिन है।
संगीत-स्वरों की मंत्र शक्ति उसके लिये सुलभ है न समय साध्य है पर उसके सहज रूप का हृदयंगम और उसका लाभ तो हर कोई ले सकता है। अच्छे गीतों का चुनाव करना, उन्हें कण्ठस्थ करना और कोई न हो तो एकान्त में काम करते हुए या बैठकर अकेले ही गाना लोगों को सुनाना, कीर्तन करना यह ऐसी सुलभ संगीत साधनायें हैं, जिनसे शारीरिक, मानसिक और आत्मिक प्रगति की जा सकी है। नृत्य और अभिनव का संगीत कर उसे और भी सरस बनाया जा सकता है। नाचना गाना और बजाना मनुष्य समाज की सुखद कलायें हैं, यदि यह न हों तो मनुष्य जीवन जैसा नीरस और कुछ न रह जाये।
1969/ AJ/4
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