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मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी सफलता है आद्यात्मिक उत्कर्ष


                                             



म सब बचपन से ही सीखते आए हैं। सीखने की प्रक्रिया बचपन से लेकर जीवन के अंत तक चलती रहती है। इनसान जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है उसकी रुचियों में परिवर्तन होता जाता है। उसका खान-पान भाषा-शैली रहन-सहन आदि। इस विश्व में अनेक प्रकार के ज्ञान और विज्ञान मौजूद हैं। हम अपनी रुचि के अनुसार उन सबको सीखते हैं और लाभ उठाते हैं। पर इन सब विज्ञानों से ऊंचा एक महा विज्ञान है जिसके बिना अन्य सब विज्ञान अधूरे एवं अनुपयोगी हैं। खेद है कि उस महा विज्ञान के महानतम लाभ और महत्व की ओर हम ध्यान नहीं देते। वह है अध्यात्म।
अध्यात्म है मानव जीवन का तत्वज्ञान:   यह मानव जीवन का वह तत्वज्ञान है जिसके ऊपर आन्तरिक और बाहरी उन्नति समृद्धि एवं सुख शान्ति निर्भर है। साहित्य कला शिल्प रसायन विज्ञान संगीत आदि का ज्ञान मनुष्य की पदवी और समृद्धि को बल देता है। पर अध्यात्म ज्ञान के बिना सहयोग प्रेम आत्मीयता सन्तोष आनन्द एवं उल्लास की उपलब्धि नहीं हो सकती।
      यहां एक बात और स्पष्ट करना चाहूंगा कि नैतिकता और अध्यात्मिकता में जमीन-आसमान का अतंर है। आध्यात्मिक पुरुष अवश्य ही नैतिक होगा। लेकिन नैतिक पुरुष आध्यात्मिक हो यह जरूरी नहीं है।

जीवन को नरक न बनाएं: हम सब ने अपने अब तक के व्यक्तिगत जीवन में देखा होगा कि अनेकों धनवान और बड़े पद वाले इंसान अपने जीवन को नरक बना लेते हैं। ऐसे लोग अशान्ति की आग में दिन-रात जलता हुआ अनुभव करते हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं जैसे कि कुछ लोग अपने को बहुत बड़ा जानकार मानने लगते हैं। 

वे यह सोचने लगते हैं कि मैं इस दुनिया में पहले आया हूं और मुझे ही पूरी जानकारी है। चाहे बात पढ़ने लिखने की हो खान-पान की हो या शादी-संबंध की हो सब उन्हीं के अनुसार किया जाए।

आपने उनके मन का किया तो बहुत अच्छा रहेगा। यदि आप खरे नहीं उतरे तो वे आपसे संबंधों को भी तोड़ सकते हैं। और कुछ लोग तोड़ भी लेते हैं। संचार के इस युग में आप उनकी बात सुनने को तरस जाएंगे। लेकिन भगवान से हमारा संचार बना रहे। क्योंकि अंतिम सत्य वही है। भगवान को हर आती और जाती सांस के साथ महसूस करते रहें। इसके विपरीत अनेकों साधारण स्थिति के व्यक्ति अपने को स्वर्गीय सन्तोष की शान्ति से परितृप्त अनुभव करते हैं।

खैर संबंधों की चर्चा कभी फिर करेंगे। लेकिन  कुछ बातें अचेतन मन में होती हैं वह आपके ध्यान को इधर-उधर खींच ले जाती हैं। आज अपने विषय पर ही केंद्रित रहूंगा। आध्यात्मवाद वह महा विज्ञान है जिसकी जानकारी के बिना दुनिया के समस्त वैभव बेकार है और जिसके थोड़ा सा भी प्राप्त होने पर जीवन आनन्द से ओत प्रोत हो जाता है।

आद्यात्मिक जीवनशैली की आवश्यकता
संसार में सीखने योग्य जानने योग्य अनेकों वस्तुएं हैं। लेकिन स्मरण रखो (इस प्रक्रिया में स्वयं भी शामिल हूं) सबसे पहले जिसे सीखने और हृदयंगम करने की आवश्यकता है आध्यात्मवाद। संसार में अनेक प्रकार के लाभ हैं। धन मान प्रतिष्ठा स्त्री पुत्र आदि कई प्रकार के लाभ लोगों को प्राप्त होते हैं। लाभों को प्राप्त करने के लिए लोग जन्म लेते हैं और मृत्यु पर्यन्त लगे रहते हैं। जितने लाभ मिला उतनी तृप्ति व संतोष भी मिलता है उतने अंशों में खुशी भी मिलती है। बीमार आदमी स्वस्थता के लिए तरसता है उसे संसार की सर्वोपरि संपदा समझता है पर जो स्वस्थ हैं उन्हें स्वास्थ्य की कुछ महत्ता प्रतीत नहीं होती।
       गरीब के लिए धनी होने की आशा स्वर्ग लाभ जैसी सुखद लगती है पर मालदार हो जाने पर उसे उस दशा में कोई विशेषता नहीं मालूम पड़ती। साथ ही दुनिया में इसी प्रकार स्त्री हीन पुत्रहीन साधन हीन नौकरी हीन मनुष्य अपनी मनचाही वस्तुओं को प्राप्त करने की आशा से लालायित रहते हैं। लेकिन देखा यह जाता है कि मनचाही बस्तु संबंध या इनसान प्राप्त होते ही उनका रस चला जाता है। क्योंकि वास्तव में उन वस्तुओं के पाने पर भी मनुष्य को सुख नहीं मिलता अभाव ग्रस्तों की भांति साधन सम्पन्न भी दुखी ही देखे जाते हैं। इसे समझदारों की नासमझी न कहें तो क्या कहें ?
शाश्वत चीजों को जाने, व्यर्थ की घुड़दौड़ से बचें: इस दुनिया में कोई भी चीज अमर नहीं है। वस्तुएं परिवर्तन शील एवं नाशवान होती हैं। वे बदलती और नष्ट होती रहती हैं। इनसान चाहता है कि उसकी वस्तु सदा उसी रूप में रहे पर यह संभव नहीं। इसलिए धन सम्पत्ति या स्त्री पुत्रों के नष्ट होने पर उलटा शोक विछोह दुःख क्लेश होता है दूसरी ओर हर लाभ को अधिक मात्रा में प्राप्त करने की तृष्णा बढ़ती है। इस तृष्णा की पूर्ति के लिए मनुष्य चिन्ता बेचैनी एवं अत्यधिक श्रम शीलता में लगा रहता है। मन को उस आकर्षण एवं भार से पल भर के लिए छुटकारा नहीं मिलता फल स्वरूप लाभ के लिए किए गए प्रयत्न प्राणी को अशान्त बनाए रखते हैं। कितने ही व्यक्ति तो पाप पुण्य उचित अनुचित का विचार करके जैसे भी बने लाभान्वित होने की चेष्टा करते हैं। इस घुड़दौड़ में वे पग−पग पर ठोकर खाते और आहत होते हैं।
सुखाभास मात्र हैं सांसारिक चीजें: इन सब बातों पर गम्भीरता से विचार करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकलता है कि सांसारिक पदार्थों से बाह्य परिस्थितियों से जो सुख मिलते हैं जो लाभ प्रतीत होते हैं वे अवास्तविक एवं क्षणिक हैं। सुखाभास मात्र हैं। असल में मन की संतुष्टि का दूसरा नाम ही सुख है। एक आदमी धन में सुख मानता है वह धन के लिए स्वास्थ्य एवं शरीर को भी गमा सकता है। दूसरा आदमी विषय सेवन में सुख मानता है और उसके लिए सारी धन संपत्ति को स्वाहा कर देता है। मन जिस ओर झुक जाता है जिस केन्द्र पर मनोवाँछा एकत्रित हो जाती है उसी में लाभ प्रतीत होने लगता है।
                आत्मिक तत्व शाश्वत एवं स्थायी हैं वे न तो कभी बदलते हैं और न नष्ट होते हैं। आत्मा का जो स्वभाव है वही स्वभाव मन का बना देने से दोनों का समन्वय हो जाता है। योग विद्या मन और आत्मा के स्वभाव का एकीकरण करने की विद्या है। दोनों का स्वभाव एक हो जाने से मन वचन और काया से एक ही प्रकार के परम सात्विक कार्य होने लगते हैं। उन दोनों के परस्पर विरोधी होने के कारण जो संघर्ष चलते थे उन सबकी समाप्ति हो जाती है।
आतंरिक आनंद का आधार है योगविज्ञान:   आन्तरिक आनन्द की निर्मल निर्भारिणी में स्नान करने के लिए दु:ख रहित सुख प्राप्त करने के लिए योग ही एक मात्र आधार है। योग के बारे में यहाँ केवल आसान या प्राणायाम की बात नहीं की जा रही, यहाँ हमारे ऋषियों द्वारा वर्णित आष्टांग योग की बात की जा रही है। इसको अपना लेने पर मन वचन कर्म से हम आध्यात्म की दिशा में चलते हैं। फलस्वरूप आनन्द प्रेम एवं सद्भाव प्राप्त होता है जिससे हमें पग पग पर प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता के अनुभव होते रहते हैं।
         योग साधन से मन का संयम सत्कर्म स्वरूप शक्तियों का प्रचुर अपव्यय बच जाता है क्रिया शक्ति बढ़ती है जिससे अधिक तेजी के साथ मनुष्य उन्नति के पथ पर अग्रसर हो सकता है। यह विचार गलत है कि अध्यात्म मार्ग पर चलने वाला सांसारिक वैभवों को प्राप्त नहीं कर सकता। सच बात यह है कि आत्मवादी व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में बलवान शक्ति सम्पन्न और श्रीमान बन सकता है।
        आज जिधर हमारा मन लगा हुआ है यदि कल उधर से हट कर दूसरी ओर लग जाए तो कल जो पदार्थ काम या साधन सुखदायक प्रतीत होते थे वे ही आज निरर्थक व्यर्थ या हानिकारक प्रतीत होने लगते हैं। इससे प्रकट है कि मन के सन्तोष में ही सुख है। राजा अपने राजमहल में जितना सुखी है साधु अपनी कुटी में उससे भी ज्यादा सुखी है। माल की मस्ती दुनिया में बहुत बड़ी मानी गई है पर ख्याल की मस्ती उससे भी बड़ी है। मन का प्रकाश जिस वस्तु पर भी पड़ता है वह चमकने और जगमगाने लगती है वही लाभ दायक प्रतीत होने लगती है।
     हम सब को स्मरण रखना चाहिए कि संसार में अनेक लाभ हैं पर जीवन का सर्वोपरि लाभ अध्यात्म है। उसका महत्व संसार की महानतम वस्तुओं से ऊँचा है उसका लाभ सृष्टि के समस्त लाभों से अधिक है। इसलिए उस मार्ग में प्रवेश करने के लिए हम सब को प्रयत्न शील होना चाहिए।
 
रघुनाथ यादव

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