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जहाँ लौकी बोलती है, वहाँ कुकर फटता नहीं, पंचायत ने बता दिया, कहानी कहने के लिए कपड़े उतारने की ज़रूरत नहीं होती

आज के दौर में सिनेमाई कहानी कहने की दुनिया जिस मार्ग पर चल पड़ी है, वहाँ पटकथा से ज़्यादा त्वचा की परतों पर कैमरा टिकता है। नायक और नायिका के संवादों की जगह ‘सीन’ बोलते हैं और भावनाओं की जगह अंग प्रदर्शन ‘व्यू’ बटोरते हैं। इसे नाम दिया गया है ‘क्रिएटिव फ्रीडम’। वेब सीरीजों के लिए बड़े बड़े बजट, चमकदार चेहरे और नग्न दृश्य अब ‘रियलिज़्म’ का नकली नकाब ओढ़ कर दर्शकों को भरमाते हैं। मगर इस सब के बीच अगर कोई सीरीज़ बिना चीखे, बिना झूठे नारे, और बिना कपड़े उतारे भी सीधे दिल में उतर जाए — तो वो "पंचायत" वेब सीरीज है।

TVF की यह अनोखी पेशकश इस धारणा को चुनौती देती है कि दर्शकों को केवल ‘बोल्डनेस’ ही चाहिए। पंचायत ने बता दिया कि अगर आपकी कहानी सच्ची हो, तो सादगी ही सबसे बड़ी क्रांति बन जाती है।

हालिया रिलीज "पंचायत" उन कहानियों के लिए एक तमाचा है जो यह मानकर चलती हैं कि जब तक किरदार बिस्तर पर नहीं दिखेंगे, तब तक दर्शक स्क्रीन पर नहीं टिकेगा। पंचायत दिखाती है कि गाँव की सबसे बड़ी लड़ाई किसी बिस्तर पर नहीं, बल्कि पंचायत भवन के फर्श पर लड़ी जाती है, कभी लौकी के नाम पर, तो कभी कुकर की सीटी पर।

इस बार की "पंचायत" की नई सीरीज गांव के चुनाव की रणभूमि है, लेकिन न वहाँ अश्लीलता है, न छिछला रोमांस, न कोई दिखावटी थ्रिल। है तो बस असली लोकतंत्र, वह भी ऐसा जिसमें विनोद जैसा सामान्य युवक भी कहानी का नायक बन जाता है।
"पंचायत" सीरीज की यही सबसे बड़ी बात है कि वह असल भारत को दिखाती है,  ऐसा भारत जो न तो ‘बोल्ड’ है, न ग्लैमरस, न ही सेक्स और सिगरेट से भरा हुआ। बल्कि ऐसा भारत जिसमें बिजली जाने पर पढ़ाई रुकती है, जिसमें प्रेम मौन से पनपता है और जिसमें लोकतंत्र कागज़ के वादों में नहीं, खपरैल के छज्जों के नीचे पलता है।
जब सचिव जी एक नंबर से परीक्षा में पिछड़ते हैं, तो वो दृश्य किसी ‘ब्रेकअप सीन’ से ज़्यादा असर करता है। जब रिंकी और अभिषेक बिना कुछ कहे बस एक-दूसरे को देखते हैं, तो वो प्रेम किसी भी इंटीमेट सीन से ज़्यादा गहरा हो जाता है। और जब विनोद जैसी ईमानदार आत्मा को गाँव की राजनीति लील जाती है, तो वो हार किसी बदनाम गाली से ज़्यादा चुभती है।
आजकल की वेब सीरीज़ जहाँ हर पांच मिनट में कपड़े उतरवाने पर तुली रहती हैं, वहाँ पंचायत पूरे आठ एपिसोड तक संयम के वस्त्र में गरिमा की कथा कहती है।
कोई 'बोल्ड' शब्द नहीं, कोई भड़काऊ संगीत नहीं, कोई ‘चॉकलेट बॉडी’ नहीं और कोई तंग कपड़ों में लड़कियाँ नहीं। लेकिन फिर भी यह सीरीज़ लोगों को बाँध लेती है, क्योंकि इसे पता है कि असली कहानी कहाँ बसती है..रिश्तों में, राजनीति में, प्रतीकों में, और सबसे ज़्यादा...चुप्पी में।
लौकी और कुकर चुनाव चिन्ह नहीं, प्रतीक हैं। लौकी गाँव की सरलता, सच्चाई और मिट्टी की सोंधी महक का प्रतीक है। कुकर राजनीति की चालाकी, दबाव और टेंशन का रूपक।
इन प्रतीकों के सहारे पंचायत वो कर जाती है जो कई हाई-बजट सीरीज़ ढेर सारा पैसा खर्च करने के बाद भी नहीं कर पाईं, वो यह समझा जाती है कि लोकतंत्र अश्लीलता से नहीं, समझदारी से चलता है।
विधायक का डांस हो या रिंकी का मौन, विनोद की ईमानदारी हो या सचिव जी का दारू पीकर टंकी पर चढ़ना। पंचायत हर दृश्य को यथार्थ की धूल से गढ़ती है।
यह वो दुनिया है जहाँ कचौड़ी के लिए भी युद्ध हो सकता है और उस युद्ध में भी स्त्रियाँ सिर्फ प्रेमिका नहीं, प्रत्याशी भी होती हैं। किसी भी महिला किरदार को न तो कैमरा नीचे से ऊपर तक स्कैन करता है, न ही उन्हें लव ट्रैक की वस्तु बनाया गया है।
मंजू देवी फिर चुनाव लड़ती हैं, रिंकी की चुप्पी बोलती है, और विधायक की बेटी तर्कों से जवाब देती है। यह हैं असली ‘बोल्ड’ स्त्रियाँ, जो बोलती हैं, झपटती नहीं।
ऐसी सीरीज़ों के सामने पंचायत एक मूक विद्रोह है। यह सीरीज़ कहती है कि अगर तुम्हारे पास कहने को कुछ सच है, तो तुम्हें बदन दिखाने की ज़रूरत नहीं, बस दिल से कहना आना चाहिए।
पंचायत के संवाद वल्गर नहीं, व्यंग्यात्मक हैं, इसका संगीत उत्तेजना नहीं, अनुभूति जगाता है, इसके पात्र नकली गुस्से या चीखों से नहीं, खामोशी और संघर्ष से बड़े लगते हैं। कोई जिम-ट्रेंड बॉडी नहीं, कोई ‘माचो’ एटीट्यूड नहीं, पर फिर भी रघुवीर यादव जैसे किरदार सीरीज़ को मजबूत रीढ़ की हड्डी बना देते हैं।
इस सीज़न के एपिसोड्स  केस मुकदमा, शक्तिप्रदर्शन, संजीवनी, ड्रामेबाज़, वचन और दबदबा आदि, न केवल कथा की परतें खोलते हैं, बल्कि यह भी दिखाते हैं कि लोकतंत्र में भाषण से ज़्यादा ज़रूरी है विश्वास। चुनावी प्रचार में जब नाच-गाने और गाली-गलौज की जगह गाँव के आम चेहरे दिखते हैं, तो यही पंचायत का असली मास्टरस्ट्रोक बन जाता है।
और फिर आती है पंचायत की वह गूंजती चुप्पी। अभिषेक और रिंकी के बीच का मौन प्रेम। बिना एक भी किसिंग सीन, बिना एक भी हाथ पकड़ने की क्लोज़अप शॉट और यह प्रेम असहज नहीं करता, बस अपना सा लगता है। यह दिखाता है कि प्रेम को अभिव्यक्त करने के लिए देह नहीं, दृष्टि चाहिए।
तो क्या अब भी ज़रूरत है उन सीरीज़ों की जो हर फ्रेम में अश्लीलता घोल देती हैं? क्या अब भी मानें कि दर्शकों को सिर्फ ‘बोल्ड सीन’ पसंद हैं? पंचायत सीज़न 4 इस भ्रम को तोड़ता है और यह दर्शकों से नहीं, निर्माताओं से संवाद करता है।

पंचायत का यह सीज़न कहता है

अगर तुम्हारी कहानी में दम है, तो दर्शक कपड़े नहीं, किरदार याद रखेंगे।
अगर संवाद असली हैं, तो कोई भी बेड सीन उन्हें हरा नहीं सकता।
और अगर कंटेंट में आत्मा है, तो कैमरा शरीर के पीछे नहीं भागेगा।
इसलिए, जब भी कोई वेब सीरीज़ दर्शकों को ‘बोल्ड’ बनाने के नाम पर वस्तु बना दे, तो उसे पंचायत दिखाइए।

और कहिए...जहाँ लौकी बोलती है, वहाँ कुकर फटता नहीं।
क्योंकि कहानी कहने के लिए कपड़े नहीं, कलेजा और करुणा चाहिए।

✍️...रघुनाथ सिंह

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