भारतीय शैक्षिक परंपरा में यह मान्यता रही है कि शिक्षा केवल सूचना का आदान-प्रदान नहीं है, बल्कि आंतरिक चेतना और दृष्टि का विस्तार है। इसी संदर्भ में जब “ब्रेकिंग द कैनन : आर्ट एंड डिज़ाइन पैडागॉजी और प्रैक्टिस में जेंडर इक्वैलिटी” जैसे कार्यक्रम सामने आते हैं,तो उनके उद्देश्य और लक्ष्य निस्संदेह प्रशंसनीय प्रतीत होते हैं, किंतु गहराई से विचार करने पर कुछ प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठते हैं।
समानता का अनुभव केवल बाहरी प्रशिक्षण या रणनीति से संभव नहीं है। यह तो भीतर की सजगता और धारणाओं से मुक्ति से जन्म लेता है। यदि शिक्षक और विद्यार्थी अपनी जड़बद्ध धारणाओं से परे जाएँ,तभी वास्तविक समानता का वातावरण बन सकता है। कार्यशालाओं के माध्यम सेसमानता सिखाने की कोशिश अक्सर बौद्धिक अभ्यास भर रह जाती है।
रचनात्मकता का स्वभाव स्वतंत्रता है। वह किसी सामाजिक या लैंगिक खाँचे में बंधकर प्रकट नहीं होती। जब कला और डिज़ाइन को केवल जेंडर के आधार पर समझने और परिभाषित करने का प्रयास किया जाता है, तो अनजाने में उसी सीमा को मज़बूत कर दिया जाता है जिसे तोड़ना उद्देश्य था। सृजन न पुरुष है, न स्त्री, यह भीतर की सहजता और मौन का प्रस्फुटन है।
शिक्षण पद्धतियाँ और रणनीतियाँ शिक्षा को दिशा दे सकती हैं, किंतु उसका वास्तविक हृदय शिक्षक की प्रामाणिकता और सजगता में होता है। यदि शिक्षक भीतर से संवेदनशील और स्वतंत्र है, तो हर पद्धति जीवंत हो जाती है। अन्यथा सबसे सुंदर तकनीकें भी खोखली लग सकती हैं।
कला का सौंदर्य उसकी मौलिकता और मौन में है। जब भी हम उसे बार-बार सामाजिक संरचनाओं, जेंडर, राजनीति या बराबरी, के चश्मे से ही देखने लगते हैं, तो उसकी सहजता और मौन खो जाते हैं। कला का सार सीमाओं को तोड़ना है, न कि उन्हें और मज़बूत करना।
आलोचनात्मक चिंतन का अर्थ केवल स्थापित ढाँचों पर प्रश्न उठाना नहीं, बल्कि उन विचारधाराओं पर भी प्रश्न करना है जो हमें स्वतंत्रता से रोकती हैं। यदि जेंडर इक्वैलिटी भी केवल एक वैचारिक चौखटे में सीमित कर दी जाए, तो वह स्वतंत्रता का मार्ग नहीं बनेगी, बल्कि एक नई बंदिश का रूप ले लेगी।
इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि इस कार्यक्रम के शीर्षक और उद्देश्य महत्वपूर्ण अवश्य हैं, परंतु सच्ची रचनात्मकता और समानता किसी व्याख्यान,कार्यशाला या रणनीति से नहीं आती। वे तो आत्मिक जागरूकता, स्वतंत्र चिंतन और मौलिक अभिव्यक्ति से ही जन्म लेती हैं। शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य यही होना चाहिए कि शिक्षक और विद्यार्थी दोनों भीतर से स्वतंत्र हों, ताकि कला और डिज़ाइन का प्रवाह किसी उद्देश्य या तकनीक से नहीं, बल्कि सहज आनंद औरगहराई से उत्पन्न हो।
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