फिल्म अभिनेता धर्मेंद्र जी अस्पताल से डिस्चार्ज हुए, लेकिन हमारे मीडिया ने उन्हें पहले ही स्वर्गीय घोषित कर दिया! खेद की बात तो यह है कि कुछ चैनलों ने श्रद्धांजलि विशेष चलाया, कुछ ने धर्मेंद्र की के आखिरी शब्द भी खोज निकाले और सोशल मीडिया पर तो श्रद्धांजलियों की बाढ़ ही सुनामी आ गई। सवाल यह है कि कौन मरा और कौन पत्रकार जिंदा?
आज के वैरायटी पत्रकार ख़बर नहीं बनाते, ख़बर के बन जाने की जल्दी में रहते हैं। एक दौर था जब रिपोर्टर फील्ड में पसीना बहाता था, अब बस एक ट्वीट या वाट्सऐप मैसेज आ जाए, तो न्यूज़ रूम में घंटियाँ बज उठती हैं.....ब्रेकिंग! पहले हम चला देंगे, बाद में देखेंगे कि सही है या नहीं।
इस दौर में ब्रेकिंग न्यूज़ का मतलब हो गया है...पहले तोड़ दो, बाद में जोड़ना देखेंगे।
सत्यापन (verification) शब्द अब न्यूज़ डिक्शनरी से लुप्त हो चुका है। जो कभी पत्रकारिता का धर्म था, अब वह TRP का कर्म बन गया है।
ध्यान दीजिए, अब रिपोर्टिंग की तीन विधाएं हैं इन वैरायटी चैनलों की डिक्शनरी में...
रियल टाइम रिपोर्टिंग (जब वाकई कुछ हो रहा हो)।
वर्चुअल टाइम रिपोर्टिंग (जब कुछ नहीं हो रहा हो, पर दिखाना जरूरी हो)।
री-ट्वीट टाइम रिपोर्टिंग (जब कोई और ट्वीट करे, तो उसे ख़बर मान लो)।
आज के संपादक अपने रिपोर्टर से पूछते हैं... खबर सही है?
रिपोर्टर कहता है.... सर, वायरल है!
बस, मंजूरी मिल जाती है।
पत्रकारिता के मंदिर में अब सत्य नहीं, स्पीड की पूजा होती है।
न्यूज़ चैनल का ध्येय वाक्य भी बदल गया है...तेज़ से तेज़ खबर, चाहे गलत ही क्यों न हो।
और यदि गलती से सही खबर चली जाए, तो उसे भी दोबारा चेक कर लो....कहीं कोई अपडेट तो नहीं आ गया!
धर्मेंद्र जी की मृत्यु वाली ख़बर सिर्फ एक मिसाल नहीं, बल्कि मीडिया की आत्मा के कोमा में जाने की रिपोर्ट है। अब सवाल उठता है...जब इतने चैनल, वेबसाइट, और न्यूज़ पोर्टल हैं, तो सत्य की जांच कौन करेगा?
जवाब है... कोई नहीं। क्योंकि अब सत्य ट्रेंड नहीं करता।
पत्रकारिता कभी लोकतंत्र का चौथा स्तंभ थी, अब कंटेंट क्रिएशन का पहला बिजनेस बन गई है। जो खबर सबसे पहले स्क्रीन पर आती है, वही सत्य घोषित हो जाती है, चाहे बाद में माफी मांगनी पड़े या “Kill…Kill…Kill” का मैसेज भेजना पड़े।
आज की पत्रकारिता एक अंधी दौड़ बन चुकी है..
जहां कोई जीतता नहीं, बस विश्वास हारता है। जहां ब्रेकिंग न्यूज़ की चिल्लाहट में संवेदना की आवाज़ दब जाती है। जहां सच की जगह “सबसे तेज” का खुमार छा जाता है।
ये हालात देखकर TV चैनलों के लिए यही कहा जा सकता है...मीडिया अब वो बूढ़ा रिपोर्टर बन चुका है जो चश्मा भूलकर सुर्खियां पढ़ रहा है। उसे न अक्षर साफ दिखते हैं, न असर। लेकिन फिर भी वह गर्व से कहता...हमने सबसे पहले बताया था!
और जनता मुस्कराकर पूछती है..."पर क्या सच बताया था?"
✍️...बस यूं ही रघुनाथ

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