गर्मियों के दिन थे। सुबह का वक़्त था। तिथि थी आधे बैसाख अख़तीज। गांव के सभी बच्चों के चेहरों पर मुस्कान- कुछ करने की। कुछ खरीदने की। सभी बच्चों ने पहले से ही निर्णय कर लिया था कि क्या करना है, क्या खरीदना है, क्या खाना है, घर क्या लाना है- आदि आदि। छोटे भइया के लिए क्या लाना है, बहन के लिए क्या लाना है.....उनके चेहरे पर खुशियां कई दिनों से तैर रही थीं। और तैरें भी क्यों न क्योंकि, साल में यह तिथि एक ही दिन तो आती है। जी हां... हम बात कर रहे हैं अपने गांव के डोंडा वाले बाग़ की। बाग़ को श्रीश्री 1008 रामानंद जी महाराज ने पुष्पित-पल्लवित किया। भले ही महाराज जी आज हमारे बीच स्थूल रूप में न हो, लेकिन सूक्ष्म रूप से उनकी उपस्थिति आज भी बाग़ में महसूस की जा सकती है। उनके सद वाक्य आज भी हमारे कानों में गूंजते हैं। आज बात महाराज जी पर नहीं, महाराज जी पर अलग से किसी दिन चर्चा करेंगे। दूसरी कहानी आप को बताते हैं...ये बात वर्ष 1990 की है। इस बात को 30 बरस हो गए, लेकिन आज भी वैसी ही नयी है- जैसी कि तब थी।
अब तक सुबह के आठ बज चुके थे। जैसे-जैसे घड़ी की सुई आगे बढ़ रही थी, कुछ बच्चों के दिलों की धड़कन तेज होती जा रही थी, हो भी क्यों न, क्योंकि उनके हाथ अभी तक खाली थे। लेकिन, कुछ बच्चे ऐसे भी थे, जिन्होंने कड़ी धूप में सिला बीना, फिर उसे कूटा-पीटा और हवा में सहलाया, इसे बेचकर दस-बीस रुपये इकठ्ठा कर लिए थे, क्योंकि वे लगातार मेले में चल रही भागवत कथा नियमिय सुनने जा रहे थे। इसलिए उन्हें पहले से ही जानकारी थी कि मेले में कौन-कौन सी दुकानें लगेंगी। इस वज़ह से उनके चेहरे पर मेला में जाने का उल्लास देखते ही बन रहा था। भले ही ये दस-बीस रुपये आज के वक़्त में कम लग रहे हों, लेकिन आज से तीस बरस पहले बच्चों के लिए पर्याप्त थे।
वहीं, कुछ बच्चे ऐसे भी थे, जो उदास, निराश और हताश थे। हों भी क्यों न, क्योंकि उनके हाथ अभी तक खाली थे। उनके परिज़नों की ओर से कई दिनों से उन्हें भरोसा दिया जा रहा था कि तुम्हें मेले वाले दिन रुपये मिल जाएंगे। बच्चे अख़तीज के दिन सुबह-सुबह ही कुुआँ पर नहाने पहुुँच गये। उन्होंंने वहींं नहाया धोया और घर आकर बालों में सरसों का तेेल लगाया और कंघी की। किसी ने धारीदार तो कोई चेक की कमीज़ पहन के मेले में जाने को तैयार। लेकिन, अफ़सोस कि उनके परिजन बैलगाड़ी लेकर खेतों की ओर मलुआ लेने चले गए।
कोई खेलमला की ओर, उस दौर में ये ऐसा स्थान था, जहां कोई आस-पास नज़र नहीं आता था। कोई बंजारों के डेरा की ओर, कोई "नंगामील" की ओर, "नंगामील" आप नाम से ही समझ गए होंगे कि उस वक़्त में यह कैसा इलाका रहा होगा। कोई "ऊपरी" की ओर चले गए। आप इस स्थान से भी अच्छी तरह से परिचित होंगे।
कहते हैं कि अपने हाथ का ही पैसा समय पर काम आता है। अब तक घड़ी की सुई 8ः30 तक पहुंच चुकी थी। तब तक किसी ने कहा कि तेरे पापा की बैलगाड़ी आ गई। बच्चे ख़ुशी से फूले नहीं समाए। लेकिन, उनकी ख़ुशी ज़्यादा देर नहीं चली। उनके परिजनों ने कहा कि पहले मलुआ गाड़ी से उतरवाओं उसके बाद मेला करने के लिए पैसे मिलेंगे।
बच्चे क्या करते और कोई दूसरा विकल्प भी नहीं था। इसलिए मलुआ उतरवाने में ही भलाई समझी। जैसे-जैसे मलुआ गाड़ी से कम हो रहे थे, उनकी बैचैनी बढ़ती जा रही थी। कुछ तो उनकी बैचैनी वे बच्चे बढ़ा रहे थे, जिन्हें पहले ही रुपये मिल चुके थे और गाड़ी के पास खड़े होकर मेले में ज़ल्दी चलने की रट लगा रहे थे।
इसी बीच एक सज्जन (यहां नाम बताना ठीक नहीं है) जो बैलगाड़ी चला के लाए थे, उस वक़्त प्यासे भी थे, उन्होंने बड़े प्यार से, हौले से एक बच्चे में पैना जड़ दिया। बच्चा भैरा के वहां से सटक लिया। लेकिन, मामला दोस्ती का था। इस कारण वह गाड़ी खाली होने तक अपने यार का धूप में खड़े होकर इंतजार करता रहा। बच्चों की धारीदार और चेक की कमीज़ भी मलुआ उतरवाने में मैली हो गई। इसकी उन्होंने कतई चिन्ता नहीं की। और अब गाड़ी भी खाली हो गयी थी।
अब सुबह के 9ः00 बज चुके थे। धूप तेज हो चुकी की। बच्चों को भूख भी लगी थी, लेकिन सबसे ज़्यादा भूख तो उन्हें मेला में साथियों के साथ जाने की थी। गाड़ी खाली होने के बाद बच्चे अपने-अपने परिजनों के पीछे चल दिए- रुपये मिलने की आस में।
लगभग 9ः30 बजे तक सभी के परिजनों ने बच्चों को पैसे थमा दिए। साथ ही, एक चेतावनी देते हुए कहा, "किसी से लड़ाई-झगड़ा कतई नहीं करोगे, यदि किया तो समझ लेना!"
'बच्चों ने उनकी हां में हां उस वक़्त तो कर दी।'
'बच्चों ने उनकी हां में हां उस वक़्त तो कर दी।'
रुपये मिलने के बाद तो बच्चों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। अगर उस दौर की बात करें तो घरवालों से मेला करने के लिए रुपये मिलने की ख़ुशी आज के वक़्त की किसी भी ख़ुशी से लाख गुना ज़्यादा थी। आज भले ही हमारी जेब में कितने भी पैसे हों या हमारी बैंक की पासबुक पर दर्ज हों। ये रुपये आज उतनी ख़ुशी नहीं देते, जितनी कि बचपन में उन रुपयों से मिलती थी।
जेब गर्म होने के बाद सभी बच्चे अब अपने-अपने घरों से मेले के लिए चल दिए। अब तक सुबह के 9ः35 बज चुके थे। तब तक उधर मेले की ओर से कोई गुब्बारा, कोई बांसुरी, कोई लकड़ी की तीन पहिए की गाड़ी लिए चला आ रहा था। ये सब नज़ारा देखकर बच्चों के कदम तेज चलने लगे।
बच्चे अब तक श्री कैलाश जी के ट्यूबवेल तक पहुंच चुके थे। मस्ती से वे सभी मेले की ओर चले जा रहे थे। तभी गांव की ओर से खलखला बजने की आवाज़ आती है। आवाज़ सुनकर बच्चे ठिठक जाते हैं। उन्होंने पीछे मुड़कर देखा तो एक बैलगाड़ी आ रही थी, जोकि खाली थी। बच्चे उसी में पीछे से लद लिए। सिवाए एक बच्चे के। जैसे ही बच्चे गाड़ी में बैठे गाड़ी उलार हो गई। गाड़ी वालों ने पैना फटकारा बच्चे ‘‘नो-दो-ग्यारह‘‘ हो गए। समय बढ़ता ही जा रहा जा रहा था। अब तक बच्चे मुनेश जी के रहट तक पहुंच चुके थे।
इसी बीच दयाशंकर शर्मा उर्फ़ करू (होली वाले) का साइकिल से गांव की ओर से आगमन होता है, वह भी मेला को जा रहे थे। एक बच्चा कूद कर पीछे से उनकी साइकिल पर सवार हो गया। इससे साइकिल सवार का बैलेंस गड़बड़ा गया और साइकिल छपाक से भरा में चल रहे पानी में चली गयी। पता नहीं क्यों उस दिन करू ने स्वयं पर काबू रखा, ज़्यादा कुछ नहीं कहा, साइकिल उठाई मेले की ओर फिर चल दिए। अन्य बच्चे भी मेले की तरफ चल दिए।
अब 10 बजने को थे। मेला बच्चों से थोड़ी ही दूर था। सामने से बाग़ में लगे लाउडस्पीकर की आव़ाज और ताजे-ताजे मलपुओं की भीनी-भीनी महक आ रही थी। मेला इतनी करीब़ से देखकर बच्चों ने अपनी गति तेज कर दी।
जारी....
मेले का दृश्य अगले भाग में
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