भारत में होली का पर्व हर्षोल्लास का पर्व है। सभी लोग छोटे-बड़े का भेद भुलाकर पूरे उत्साह, उल्लास और मस्ती से यह रंगों का पर्व मनाते हैं। भारतीय सनातन परम्परा के अनुसार यह एक यज्ञीय पर्व है। इस समय नई फसल पकने लगती हैं, उसके उल्लास में सामूहिक यज्ञ के रूप में होली जलाकर नये अन्न की यज्ञ मे आहुतियां देकर बाद में उपयोग में लाते हैं।
कृषि प्रधान देश की यज्ञीय संस्कृति के सर्वथा अनुकूल यह परिपाटी बनाई गई है। होली के पर्व को लेकर उत्साह होना स्वाभाविक है। इसका नाम न केवल सबके मन को अपने रंग से भरता है बल्कि डुबा भी देता है। हृदय के अन्तराल में सहानुभूति और प्रेम के अविरल स्रोत खुलने लगते हैं। ये उमंग की तरंगें जिस के भी दिल को छूती हैं, उसे ऐसा लगता है कि जैसे वह खुशी से झूम रहा है।
इस पर्व का उल्लास महासिंधु की तरह हैं जिसमें हर कोई डुबकी लगाने को उत्सुक रहता। कुछ ऐसा लगता है जैसे जीवन में नई उम्मीदों की शाखाएं फूट पड़ी हो। हमारा मन आकुल होने लगता है- मस्ती में उमगते हुए इस उल्लास को बांटने के लिए बस क्या क्या न कर डालूं। होली के पर्व पर यही व्याकुलता सभी को व्याकुल करने लगती है। रंगो की मस्ती में डूबे ये पल अति दुर्लभ हैं।
मनुष्य के जीवन में अनेकों भाव पनपते हैं और समय के साथ तिरोहित भी हो जाते हैं। इन भावों के प्रभाव व सीमाएं भी सीमित होती हैं। हमारे जीवन में खुशियां तो अन्य दिनों में भी आती है, प्रेम के रस में अन्य दिनों भी मानव मन भीगता है, पर इसकी सीमा व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन तक सिमट जाती है। लेकिन, होली में तो जैसे प्यार से भरी उमंग का महासिंधु ‘प्रेम-की-हिलोरें’ लेता है। जिसकी प्रत्येक लहर के छूने भर से जाति, धर्म, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब आदि सभी भेद-भाव की दीवारें ढहती जाती है।
आजकल पलाश के फूलों की जगह एक दूसरे को रंगने के लिए तरह-तरह के केमिकल का इस्तेमाल किया जाता है, जो हमारे लिए बहुत हानिकारक है। हमारे समाज में युवा इन रंगों का उपयोग करते हैं और कभी-कभी लड़ाई में पड़ जाते हैं, जिससे रक्तपात होता है। यह मूर्खता की पराकाष्ठा है और जो लोग धर्म के नाम पर ऐसा करते हैं वे होली नहीं मनाते बल्कि होली के पर्व को बर्बाद करने का कार्य करते हैं।
हमारे पूर्वजों ने होली को स्वच्छता अभियान के रूप में मनाया करते थे। वसंत ऋतु में वृक्षों के पत्ते झड़ जाते हैं और चारों ओर गंदगी फैल जाती है। वे होली के अवसर पर अपने आस-पास सफाई करते थे और कूड़ा-कचरा जलाते थे। अब लोग होली मनाने के उद्देश्य को ही भूल चुके हैं।
यह आवश्यक है कि होली के प्रति हमारा जो उत्साह है, वह हर साल विकसित और विस्तृत होता रहे। उत्साह जितना अधिक होता है, जीवन जीने का अभ्यास उतना ही अधिक शक्तिशाली होना चाहिए। जैसे एक नदी को एक निश्चित दिशा में तब तक नहीं चलाया जा सकता जब तक कि पहले से नदी के किनारे मजबूत न हो। धारा धीमी हो या कमजोर, दोनों ही अभीष्ट उद्देश्य की प्राप्ति में बाधक है। दोनों सबल और सशक्त हों तो प्रेम की महाशक्ति का महाप्रयोग हो सकने की व्यवस्था बनती है।
प्रेम की महाशक्ति का स्वतंत्र रूप से उपयोग करने या इसे नियंत्रित करने के दीर्घकालिक परिणाम हो सकते हैं। होली की हिलोरें जीवन साधना के स्पर्श से सुनियोजित और सुव्यवस्थित हो जाती है। यदि ऐसा संभव हुआ तो विश्व की विविधता विषमता के बजाय होली के जीवंत आनंद का रूप ले लेगी।
बस होली के रंग सब पर छा जाएं, मन के क्लेश दूर हो जाएंगे। बस प्रेम का गुलाल सब पर छा जाए, और मन की व्याकुलता दूर हो जाए। जो सामने आए, मन का मेल मिटाकर उसी पर अपना प्रेम उड़ेल दें। दोनों सराबोर हो जाएं, होली की ‘प्रेम-की-हिलोरें’ यदि इस तरह हमें भिगो दे, तो जीवन पहेली नहीं एक रंगोली बन जाएगा।
पुराणकालीन, आदर्श सत्याग्रही, भक्त प्रह्लाद के दमन के लिए हिरण्यकशिपु के छल-प्रपंच सफल न हो सके। उसे भस्म करने के प्रयास में होलिका जल मरी और प्रह्लाद ने तपस्या की तो वह कंचन बन गये। खीझ और क्रोध से उन्मत्त हिरण्यकशिपु जब स्वयं उसे मारने दौड़ा तो नृसिंह भगवान् ने प्रकट होकर उसे मार कर दिया। इस कथा की महान् प्रेरणाओं को होली के यज्ञीय वातावरण में उभारा जाना उपयुक्त है।
होली राष्ट्रीय चेतना के जागरण का पर्व है। जिस समाज में वर्गभेद हैं, वहां समस्त संसाधन होते हुए भी क्लेश और अशक्तता ही रहेगी, जिनमें भ्रातृत्व की भावना है, सहकार की भावना है, वे अल्प साधनों में भी प्रसन्न और अजेय रहेंगे। इसलिए होली को समता का पर्व भी मानते हैं।
होली मेल-मिलाप का पर्व है। लोग दूसरों की गलतियों को माफ कर देते हैं और एक दूसरे को प्यार और स्नेह से गले लगाते हैं। आजकल हम होली के नाम पर नशा करने वाले लोगों को देखते हैं, जो निश्चित रूप से इस पवित्र पर्व पर करना सही नहीं है। इन सब प्रेरणाओं- विशेषताओं को उभारने पनपाने के लिए होली पर्व का सामूहिक आयोजन अतीव उपयोगी है।
प्रभावशाली लोकसेवी भावनापूर्वक इसके लिए प्रयत्न हों, तो बड़े आकर्षक और प्रभावशाली रूप में यह मनाया जा सकता है। होली पर्व पर जो कुरीतियां शराब, नशा आदि की पनप गई हैं, उन्हें समाप्त करने में भी सामूहिक पर्व के आयोजन से बड़ी सहायता मिलती है। उत्साह बना रहे, पर उसे मोड़ देकर शुभ बनाया जाए- यह कलाकारिता है।
इस कार्य को प्रभावशाली लोक-सेवी थोड़े प्रयास-पुरुषार्थ, सूझ-बूझ से सम्पन्न कर सकते हैं। इस अवसर पर यदि हम अपने द्वेष और ईष्या को होली की अग्नि में जलाने का संकल्प लें और जो भी हमारे पास प्रेम और मित्रता से आए उसे स्वीकार करने का संकल्प लें तो मुझे विश्वास है कि दिव्य सत्ता का वरदान हमें सहज ही उपलब्ध हो जाएगा, जो हमारे सांसारिक और आध्यात्मिक जीवन की उन्नति में सहायक होगा।
✍️...रघुनाथ यादव
Comments
Post a Comment