विचार हमारे मस्तिष्क से निकलने वाली ऊर्जा तरंगें हैं। जो कल्पना, बुद्धिमत्ता, प्रतिभा आदि अनेक रूपों में निरन्तर गतिशील रहती हैं। जीवन अनेकानेक भागों में बंटा हुआ है। उसे प्रत्यक्ष जीवन से संबंधित अनेकों कार्यों में व्यस्त रहना पड़ता है। अस्तु वह स्थिर नहीं रह पाती, सदा इधर से उधर उड़ती रहती है। भगदड़ में थोड़ा थोड़ा प्रयोजन सभी का पूरा होता है, पर स्थिरता एवं एकाग्रता के आधार पर किसी विशेष प्रयास में जो प्रवीणता, पारंगता होनी चाहिए वह नहीं हो पाती।
सांसारिक महत्वपूर्ण प्रयोजनों में एकाग्रता की ही महती भूमिका होती है। वैज्ञानिक, साहित्यकार, कलाकार, यहाँ तक कि सरकस के नट तक अपनी एकाग्रता के सहारे ही आश्चर्यजनक सफलताएँ प्राप्त करते देखे जाते हैं। बिखरे विचारों वाले अस्त-व्यस्त, अनिश्चित होते हैं, पर जिन्हें एकाग्रता में रस आने लगता है वे मन्दबुद्धि होते हुए भी कालिदास, वरदराज की तरह उच्चकोटि के विद्वान हो जाते हैं। द्रौपदी स्वयंवर के समय अर्जुन का लक्ष्य बेध उसकी संसाधित एकाग्रता का ही प्रतिफल था।
अध्यात्म जगत में भी अनेकानेक साधनाओं का उद्देश्य एकाग्रता को हस्तगत करना है। इसी निमित्त ध्यान, नाद और प्राणायाम की त्रिविधि साधनाएँ की जाती हैं। एकाग्रता से यह साधनाएँ सफल होती हैं अथवा इन साधनाओं के सहारे एकाग्रता की सिद्धि होती है। यह नहीं कहा जा सकता।
दो व्यक्तियों के बीच घनिष्ठता उत्पन्न करने की प्रक्रिया भी इसी आधार पर सम्पन्न होती है। माता और बालक, पति और पत्नी एक दूसरे का जितनी तन्मयता से ध्यान करते हैं, उसी अनुपात से वे न केवल मैत्री बढ़ाते हैं वरन् एक दूसरे के प्रति सूक्ष्म आदान-प्रदान का सिलसिला भी चालू कर देते हैं।
इस मार्ग का उपयोग ओछे प्रयोजनों के लिए भी किया जा सकता है। ताँत्रिक वर्ग के लोग इसी क्षमता को कुत्सित स्तर पर विकसित करके मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि की सिद्धि प्राप्त करते हैं और परायों को नुकसान पहुँचाकर अपनों को लाभ देने के बदले उपहार भी प्राप्त करते हैं। यह उपहार प्रतिष्ठा एवं धन दोनों ही रूपों में हो सकता है। पर यह तरीका घिनौना है। ऐसा ही जैसा-कि किराये के हत्यारे या गुण्डे अपना अनैतिक धंधा चलाते हैं।
घनिष्ठता का एक और तरीका है। स्नेह, आत्मभाव एवं समर्पण। इस सम्मिश्रण को भक्ति कहते हैं। भाव जगत में इस भक्ति की भी असाधारण शक्ति मानी गयी है। यह व्यक्तियों के साथ भी जुड़ सकती है और अदृश्य शक्तियों के साथ भी। मीरा और रामकृष्ण परमहंस ने अदृश्य शक्तियों को वशवर्ती एवं साकार कर लिया था। एकलव्य ने अपनी भावना से ही एक ऐसा गुरु विनिर्मित कर लिया था जो द्रोणाचार्य की तुलना में अधिक ही सक्षम था।
Comments
Post a Comment