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रात की नींद, सुबह का ध्यान — बनेगा जीवन का उत्तम विधान

मानव का शरीर केवल हड्डियों, मांसपेशियों और रक्त का समूह नहीं है, बल्कि यह प्रकृति की लय के साथ तालमेल बिठाकर चलने वाला एक अद्भुत जैविक यंत्र है।

यह प्रकृति के समय-चक्र से गहराई से जुड़ा है। जिस प्रकार सूर्य, चंद्रमा, ग्रह और नक्षत्र अपने निश्चित क्रम में गति करते हैं, उसी प्रकार शरीर भी अपने भीतर एक अदृश्य जैविक घड़ी के अनुसार कार्य करता है।

आयुर्वेद में इसे “कालानुसार दिनचर्या” कहा गया है, अर्थात् समय के अनुरूप आहार, निद्रा और कर्म का पालन। जब हम इस प्राकृतिक लय का अनुसरण करते हैं, तो शरीर और मन दोनों संतुलित रहते हैं।

किंतु जब हम इस लय को तोड़ते हैं, तो असंतुलन, रोग और मानसिक अस्थिरता हमारे जीवन का हिस्सा बन जाते हैं।

रात्रि का समय शरीर के लिए विश्राम का समय है। जब हम सोते हैं, तब भी शरीर काम कर रहा होता है। वह खुद को ठीक कर रहा होता है।

रात्रि 11 बजे से प्रातः 3 बजे के बीच हमारे रक्त (Blood) का अधिकांश भाग यकृत, यानी लीवर की ओर केन्द्रित हो जाता है। यह समय शरीर की विषहरण प्रक्रिया का होता है।

दिनभर शरीर में जो विषाक्त पदार्थ, रासायनिक अवशेष, या मानसिक तनाव के कारण उत्पन्न टॉक्सिन जमा होते हैं, उन्हें लीवर इस समय निष्क्रिय कर शरीर से बाहर निकालने की तैयारी करता है।यदि हम इस समय गहरी नींद में होते हैं, तो शरीर को यह शुद्धिकरण प्रक्रिया पूरी करने का पर्याप्त समय मिलता है। यदि हम रात ११ बजे सोते हैं, तो शरीर को चार घंटे का समय मिलता है, जो पर्याप्त है। पर यदि हम देर रात २ या ३ बजे सोते हैं, तो यह प्रक्रिया अधूरी रह जाती है।

इससे विष शरीर में जमा होने लगते हैं और धीरे-धीरे यह थकान, आलस्य, मुंहासे, अपच और तनाव जैसी समस्याओं में बदल जाते हैं।

आयुर्वेद के अनुसार यकृत पित्त धातु से जुड़ा होता है। यदि व्यक्ति देर रात तक जागता है, तो पित्त दोष बढ़ता है। इसका परिणाम यह होता है कि शरीर में उष्णता बढ़ जाती है, पाचन गड़बड़ाने लगता है, और त्वचा पर दाने या अन्य समस्याएँ होने लगती हैं।

यही कारण है कि रात्रि में समय पर सोना एक औषधि के समान है। यह केवल शरीर को विश्राम नहीं देता, अपितु उसे पुनर्निर्माण की शक्ति भी देता है।

प्राचीन आयुर्वेद ग्रंथों में कहा गया है, “निशीथे स्वप्नं च शौचं च आरोग्यं दीर्घजीवितम्।” अर्थात् जो व्यक्ति रात्रि में समय पर सोता और प्रातः समय पर उठता है, वह दीर्घायु और स्वस्थ रहता है।

रात्रि के पश्चात प्रातः 3 बजे से 5 बजे का समय अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह समय फेफड़ों से जुड़ा होता है। रक्त संचार का केन्द्र अब लंग्स की ओर चला जाता है। यह वही समय है जिसे शास्त्रों में “ब्रह्ममुहूर्त” कहा गया है।

इस समय हवा सबसे अधिक शुद्ध होती है और वातावरण में प्राणवायु (ऑक्सीजन) की मात्रा अधिक होती है। इस समय उठकर ताजी हवा में गहरी श्वास लेना, प्राणायाम करना और ध्यान लगाना शरीर व मन दोनों के लिए अत्यंत लाभकारी होता है।

योगशास्त्र के अनुसार ब्रह्ममुहूर्त में उठने से स्मरण शक्ति, एकाग्रता और आत्मिक ऊर्जा बढ़ती है।

आयुर्वेद कहता है कि इस समय प्राण वायु संतुलित रहती है। जब हम गहरी श्वास लेते हैं, तो शरीर की प्रत्येक कोशिका में ताजगी भर जाती है।

ध्यान करने से मन की विकृतियाँ शांत होती हैं और दिनभर की गतिविधियों के लिए मानसिक स्थिरता प्राप्त होती है। यही कारण है कि ऋषि-मुनि, योगी और वैद्य इस समय जप, ध्यान या योग करते थे। प्राचीन वचन है- “ब्रह्मे मुहूर्त उत्तिष्ठेत् स्वस्थो रक्षार्थमायुषः।” अर्थात् ब्रह्ममुहूर्त में उठना स्वास्थ्य और दीर्घायु की रक्षा करता है।

इसके पश्चात् प्रातः 5 बजे से 7 बजे तक का समय बड़ी आँत से जुड़ा होता है। रक्त संचार का केन्द्र अब कोलन या लार्ज इंटेस्टाइन की ओर चला जाता है।

यह समय शरीर से मलोत्सर्जन का होता है। शरीर को जो अनावश्यक पदार्थ बाहर निकालने हैं, वे इसी समय बाहर निकलते हैं। यदि कोई व्यक्ति इस समय शौच नहीं करता या मल त्याग की प्रक्रिया में देरी करता है, तो शरीर में विषाक्त पदार्थ रुक जाते हैं। इससे गैस, अपच, सिरदर्द और त्वचा संबंधी विकार उत्पन्न हो सकते हैं।

आयुर्वेदिक दृष्टिकोण से यह समय वात दोष का होता है। यदि व्यक्ति इस अवधि में शौच नहीं करता, तो वात का असंतुलन बढ़ता है, जिससे जोड़ों का दर्द, पेट में गैस या कब्ज जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।

इसलिए प्रातः उठते ही एक या दो गिलास गुनगुना जल पीना, हल्का व्यायाम करना और समय पर शौच जाना आवश्यक है। यह शरीर को नए दिन के लिए तैयार करता है और पाचन तंत्र को सक्रिय बनाता है।

सुबह 7 बजे से 9 बजे के बीच रक्त संचार का केन्द्र पेट यानी आमाशय की ओर चला जाता है। यह समय नाश्ता करने का है। सुबह का नाश्ता दिन का सबसे महत्वपूर्ण भोजन माना जाता है।

इस समय पेट की अग्नि सबसे शांत और ग्रहणशील होती है, अतः संतुलित और पौष्टिक आहार का सेवन शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है।

नाश्ते में सात्त्विक भोजन जैसे ताजे फल, दूध, दही, ओट्स, सूखे मेवे या अंकुरित अनाज लेने चाहिए। अत्यधिक तेल, मिर्च या तले-भुने पदार्थों से बचना चाहिए।

आयुर्वेद कहता है कि भोजन न केवल पेट भरने के लिए है, बल्कि यह शरीर और मन दोनों को पोषण देता है। “स्निग्धं मृदु हितं चान्नं यथाशक्ति प्रयोजयेत्” -अर्थात् भोजन सदैव मृदु, हितकर और व्यक्ति की शक्ति के अनुसार होना चाहिए।

सुबह का नाश्ता न करने की आदत भविष्य में कई स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म देती है, जैसे थकान, चक्कर आना, शरीर में कमजोरी या एकाग्रता में कमी।

इसके बाद दिन का मध्य भाग आता है - लगभग 10 बजे से 2 बजे तक। यह पित्त काल होता है। इस समय शरीर की पाचन शक्ति सबसे अधिक होती है।

सूर्य की ऊष्मा इस समय तीव्र होती है और शरीर में पाचन अग्नि प्रज्वलित रहती है। अतः दोपहर का भोजन दिन का मुख्य भोजन होना चाहिए।

इस समय जो खाया जाए, वह आसानी से पचता है और ऊर्जा में परिवर्तित हो जाता है। यदि इस समय भोजन बहुत हल्का लिया जाए या भोजन छोड़ा जाए, तो शरीर में कमजोरी, जलन या पित्त विकार उत्पन्न हो सकते हैं।

इस अवधि में अधिक मानसिक कार्य, मीटिंग, अध्ययन या सृजनात्मक कार्य करने से सर्वोत्तम परिणाम मिलते हैं क्योंकि मस्तिष्क भी इस समय सतर्क और सक्रिय रहता है।

लेकिन इस समय अत्यधिक तनाव, क्रोध या बहस करने से बचना चाहिए क्योंकि यह पित्त को और बढ़ाता है। आयुर्वेद के अनुसार पित्त का संतुलन मानसिक शांति से ही संभव है।

दोपहर के बाद संध्या की ओर बढ़ते हुए 5 बजे से 7 बजे तक का समय वात काल होता है। यह शरीर के विश्राम और संतुलन का समय है। इस समय हल्का व्यायाम, टहलना, संगीत सुनना या ध्यान करना लाभदायक होता है।

यह समय दिनभर की थकान को मिटाता है और मन को शांत करता है। सूर्यास्त के बाद भारी भोजन करने से बचना चाहिए क्योंकि इस समय पाचन अग्नि मंद हो जाती है।

सूर्य की रोशनी कम होने के साथ ही शरीर में भी विश्राम की प्रवृत्ति बढ़ने लगती है।

रात्रि 9 बजे से 11 बजे तक का समय कफ काल होता है। यह नींद की तैयारी का समय है। शरीर इस समय स्थिर और शांत होने लगता है।

यदि हम इस समय सोने की तैयारी करें, तो नींद स्वाभाविक रूप से आती है। टीवी, मोबाइल या कंप्यूटर जैसी तेज रोशनी वाले उपकरणों से दूर रहना चाहिए क्योंकि वे मस्तिष्क को भ्रमित करते हैं और नींद में विलंब लाते हैं।

इस समय शांत संगीत सुनना, ध्यान करना या हल्का मंत्र जप करना मानसिक शांति प्रदान करता है।

आयुर्वेद के अनुसार नींद स्वयं में औषधि है। यह शरीर को पुनर्निर्मित करती है, मानसिक तनाव को दूर करती है और रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है। “स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणं, आतुरस्य विकार प्रशमनं”- यह आयुर्वेद का मूल सिद्धांत है।

इसका अर्थ है कि स्वस्थ व्यक्ति का स्वास्थ्य बनाए रखना और रोगी के रोग का निवारण करना ही चिकित्सा का लक्ष्य है।

इस प्राकृतिक जैविक घड़ी का पालन करना कोई नया नियम नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति का हिस्सा है।

ऋषियों ने इसे सदियों पहले समझ लिया था कि शरीर प्रकृति की गति के अनुरूप ही स्वस्थ रह सकता है। जो व्यक्ति सूर्य के साथ उठता है, ताजी हवा में सांस लेता है, समय पर शौच जाता है, संतुलित भोजन करता है और सूर्यास्त के बाद विश्राम करता है, वह लंबे समय तक रोगों से मुक्त रहता है।

आधुनिक जीवनशैली में हमने इस लय को लगभग भुला दिया है। देर रात तक जागना, अनियमित भोजन, मोबाइल और इंटरनेट का अत्यधिक प्रयोग, दिन में सोना और रात में सक्रिय रहना, ये सब हमारी जैविक घड़ी को असंतुलित करते हैं। इसका परिणाम है, नींद की कमी, मोटापा, डायबिटीज, थायरॉयड, तनाव और मानसिक विकार। विज्ञान भी अब यह मान चुका है कि शरीर की सर्केडियन रिद्म (circadian rhythm) को तोड़ने से हार्मोनल असंतुलन, पाचन विकार और हृदय रोगों का खतरा बढ़ जाता है।

आयुर्वेद इसे “दिनचर्या” के माध्यम से ठीक करने की बात करता है। दिनचर्या का अर्थ है, सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक शरीर के अनुरूप क्रियाओं का निर्धारण। जैसे सूर्योदय पर जागना, स्नान करना, योग-प्राणायाम करना, समय पर भोजन लेना, दोपहर में थोड़ी विश्रांति लेना, शाम को टहलना और रात को जल्दी सो जाना। यह सरल दिनचर्या शरीर को प्रकृति की लय में वापस लाती है।

शरीर की जैविक घड़ी का पालन करने से न केवल स्वास्थ्य सुधरता है, बल्कि मानसिक शांति और आत्मिक ऊर्जा भी बढ़ती है।

जब शरीर, मन और आत्मा तीनों एक लय में आते हैं, तो व्यक्ति का जीवन सहज, प्रसन्न और संतुलित हो जाता है। यही आयुर्वेद का मूल उद्देश्य है, रोगमुक्ति नहीं, बल्कि पूर्ण स्वास्थ्य

प्रकृति का नियम बहुत सरल है, जब आप उसके साथ चलते हैं, तो वह आपका साथ देती है; जब आप उसके विरुद्ध चलते हैं, तो वह आपको सुधारने के लिए चेतावनी देती है।

यह चेतावनी कभी थकान के रूप में आती है, कभी नींद न आने के रूप में, तो कभी रोग के रूप में। हमें बस उस चेतावनी को समझकर जीवन की लय में वापस लौटना है।

यदि हम रोज़ाना अपने समय का सही उपयोग करें — रात १० बजे तक सो जाएँ, प्रातः ४ या ५ बजे उठें, प्राणायाम करें, ध्यान लगाएँ, ताजी हवा में टहलें, संतुलित नाश्ता करें, दोपहर का भोजन समय पर लें और सूर्यास्त के बाद भोजन को हल्का रखें — तो कोई भी रोग हमें नहीं छू सकता। शरीर स्वयं अपना चिकित्सक बन जाता है।

प्राचीन ऋषियों ने कहा है — “यः काले भुङ्क्ते न निद्रां करोति, न सदीर्घमायुर्भवति।” अर्थात् जो व्यक्ति समय पर भोजन और नींद नहीं करता, उसका जीवन लंबा नहीं होता। इसके विपरीत, जो व्यक्ति शरीर की प्राकृतिक घड़ी का पालन करता है, वह दीर्घायु, प्रसन्न और रोगरहित जीवन का आनंद लेता है।

इस प्रकार जब हम प्रकृति के साथ जुड़ते हैं, तो हमें बाहरी औषधियों की आवश्यकता नहीं पड़ती। शरीर स्वयं अपना औषधालय बन जाता है। हर अंग, हर कोशिका अपने कार्य में संतुलित रहती है। यकृत शुद्धिकरण करता है, फेफड़े ऑक्सीजन देते हैं, आँतें विष निकालती हैं, पेट पोषण करता है, मस्तिष्क विश्राम करता है — और पूरा शरीर सामंजस्य की अवस्था में आ जाता है। यही सामंजस्य स्वास्थ्य है।

इसलिए हमें यह समझना चाहिए कि स्वास्थ्य केवल व्यायाम या आहार का परिणाम नहीं है, बल्कि यह समय के साथ तालमेल का विज्ञान है। शरीर की प्राकृतिक जैविक घड़ी का सम्मान करना ही सबसे बड़ा उपचार है। जब हम यह समझ लेते हैं और जीवन में उतार लेते हैं, तो रोग अपने आप दूर हो जाते हैं। प्रकृति हमें उसी रूप में स्वस्थ और शांत बना देती है जैसे वह स्वयं है — संतुलित, सुंदर और पूर्ण।

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