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भारतीय सनातन संस्कृति में करवाचौथ का व्रत केवल एक पारंपरिक पर्व नहीं, अपितु प्रेम और चेतना का दिव्य उत्सव है। यह वह दिन है जब स्त्री अपने भीतर की ऊर्जा को श्रद्धा, संयम और सजगता के माध्यम से एक उच्च अवस्था में रूपांतरित करती है।
उपवास का अर्थ केवल अन्न या जल का त्याग नहीं होता, अपितु अपनी इच्छाओं और इंद्रियों पर विजय पाने की साधना है। जब कोई भूख और प्यास को भी साक्षीभाव से देखता है, तो वह अपने भीतर यह अनुभव करता है कि वह शरीर नहीं है, अपितु उस शरीर को देखने वाली चेतना है।
यह व्रत किसी बाहरी कर्मकांड की कठोरता नहीं, अपितु आंतरिक अनुशासन की कोमलता है। इसमें प्रेम का वह रूप प्रकट होता है, जो अधिकार से नहीं, समर्पण से उपजता है।
सच्चे प्रेम में दासता नहीं होती, उसमें स्वतंत्रता की गंध होती है। जब कोई प्रेम में यह कहता है कि मैं तुम्हारे साथ जीवन के संगीत में एक सुर बनकर रहूँगा, तब वह प्रेम किसी सीमित भावना से ऊपर उठकर ध्यान बन जाता है। यही इस व्रत का मर्म है, जहाँ प्रेम और ध्यान एक-दूसरे में विलीन हो जाते हैं।
करवाचौथ की रात का सबसे सुंदर और आलोकित क्षण वह होता है जब चन्द्रमा उगता है। चंद्रमा मन और भावना का प्रतीक है, शीतलता, कोमलता और पूर्णता का। जब कोई स्त्री उसे निहारती है, तो वह अपने भीतर की कोमलता और शांत चेतना को देखती है।
जैसे चन्द्रमा अधूरा होकर भी सुंदर है, वैसे ही जीवन की अधूरी यात्राएँ भी प्रेम से सुंदर बन सकती हैं। उस क्षण चाँद केवल आकाश में नहीं होता, वह उसके भीतर भी जगमगाता है।
उपवास के माध्यम से शरीर की ऊर्जा ऊपर उठती है, जो सामान्यतः इच्छाओं और इंद्रियों में बंधी रहती है। यह ऊर्जा जब ऊपर प्रवाहित होती है, तो वह ध्यान में बदल जाती है। करवाचौथ की साधना में यही परिवर्तन होता है, बाहरी प्रतीक्षा के साथ-साथ भीतर एक मौन जन्म लेता है, एक ऐसी स्थिरता जो स्त्री को भीतर से और अधिक गहराई देती है।
यह पर्व त्याग का नहीं, उत्सव का है। यह किसी डर या अंधविश्वास से जुड़ा नहीं, बल्कि आत्मविश्वास और प्रेम की पवित्रता से जुड़ा है। प्रेम जब सजग हो जाता है, तो वह पूजा बन जाता है। यही इस दिन का वास्तविक भाव है, प्रेम को साधना बनाना, प्रतीक्षा को प्रार्थना में बदलना और मौन को अनुभव में ढाल देना।
"करवा" शरीर का प्रतीक है और उसमें भरा "शीतल जल" चेतना का। जब यह करवा प्रेम, ध्यान और करुणा से भर जाता है, तब जीवन मधुर हो जाता है। करवाचौथ हमें यह याद दिलाता है कि हम सभी चेतना के पात्र हैं, जिन्हें प्रेम से भरना ही सच्ची पूजा है।
यह व्रत किसी एक दिन की परंपरा नहीं, बल्कि जीवनभर की साधना है। इस पर्व का संदेश है कि प्रेम अंधा नहीं, जागरूक होना चाहिए। जब प्रेम में ध्यान जुड़ता है, तब करवाचौथ केवल एक रीति नहीं रह जाता, बल्कि आत्मा और प्रेम का एक पवित्र संगम बन जाता है।
चंद्रमा तब केवल आकाश में नहीं, हर हृदय में चमकने लगता है... प्रेम, शांति और सजगता की शीतल रोशनी बनकर।
✍️...रघुनाथ सिंह
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