Skip to main content

सनातन संस्कृति की अद्वितीय बारीकियाँ: भावों का गहन रहस्य



भारतभूमि की महानता मात्र उसके ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों में ही नहीं, अपितु उसकी हर परंपरा और संस्कार में निहित गहन भावनाओं में भी समाहित है। हमारी सनातन परंपरा का हर छोटा से छोटा कार्य एक गूढ़ आध्यात्मिक रहस्य को अपने भीतर समेटे हुए है, जिसे सही अर्थों में समझने और आत्मसात करने की आवश्यकता है। 

उदाहरण स्वरूप, पूजन विधि में प्रयुक्त होने वाली सामग्रियों को ही देख लीजिए। जब हम पूजन करते हैं, तो विभिन्न सामग्रियों को अर्पित करते समय हम "समर्पयामि" शब्द का प्रयोग करते हैं। चाहे वह पुष्प हो, अक्षत हो, आचमन हो या आसन—ये सभी प्रकृति प्रदत्त सामग्रियाँ हैं, जो हमें ईश्वर की कृपा से सहज रूप से प्राप्त होती हैं। इन्हें अर्पित करते समय हम "समर्पयामि" कहकर स्वयं को प्रकृति के अंश के रूप में प्रस्तुत करते हैं, मानो यह स्वीकार करते हुए कि ये वस्तुएँ हमसे नहीं, बल्कि परमात्मा की कृपा से ही संभव हैं।

परंतु जब हम नैवेद्य, अर्थात मिष्ठान अर्पित करते हैं, तो हम "निवेदयामि" शब्द का प्रयोग करते हैं। यहाँ यह बारीकी अत्यंत महत्वपूर्ण है। नैवेद्य वह पदार्थ है जिसे हम अपने श्रम और कुशलता से तैयार करते हैं। इसे अर्पित करते समय हमारा अहंकार आ सकता है, क्योंकि यह मनुष्य द्वारा बनाया गया होता है। किंतु सनातन परंपरा हमें सिखाती है कि हमारी यह रचना भी परमात्मा की कृपा से ही संभव है, इसलिए "निवेदन" के भाव से इसे अर्पित करते हैं। यह निवेदन हमें विनम्रता और शिष्टता के साथ यह स्मरण दिलाता है कि ईश्वर के समक्ष हम कुछ भी अपने बल पर नहीं कर सकते, बल्कि जो कुछ भी हम करते हैं, वह भी उसी की प्रेरणा और अनुकंपा का परिणाम है।

यह बारीकी हमें सिखाती है कि जीवन के हर पहलू में हमें अहंकार को छोड़कर, विनम्रता और समर्पण के साथ आगे बढ़ना चाहिए। हमारी सनातन परंपरा की हर क्रिया, हर मंत्र, हर अनुष्ठान हमें इसी मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है। यह केवल बाहरी आडंबर नहीं, बल्कि आत्मा की गहराई तक पहुंचाने वाला साधन है। 

इसलिए, जो परंपरा इतनी गहन और सजीव भावनाओं से परिपूर्ण है, उसे नष्ट करना या क्षति पहुँचाना असंभव है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि हम इसे समझें, आत्मसात करें और आने वाली पीढ़ियों को इसके सटीक अर्थ और भाव के साथ शिक्षित करें। 

सनातन धर्म की महिमा और उसकी आध्यात्मिकता अनंत है, और इसके प्रत्येक कार्य में हमारे अहंकार को तिलांजलि देकर ईश्वर के समक्ष विनम्रता का भाव जागृत करने का संदेश छिपा हुआ है। यही संदेश हमें अपनी नई पीढ़ी तक पहुँचाना है, ताकि वे इस असीम आध्यात्मिक धरोहर को समझकर उसका आदर करें और उसे संरक्षित रखें।

✍️...  रघुनाथ सिंह


Comments

Popular posts from this blog

ध्यानी नहीं शिव सारस

!!देव संस्कृति विश्विद्यालय में स्थपित प्रज्ञेश्वर महादेव!! ध्यानी नहीं शिव सारसा, ग्यानी सा गोरख।  ररै रमै सूं निसतिरयां, कोड़ अठासी रिख।। साभार : हंसा तो मोती चुगैं पुस्तक से शिव जैसा ध्यानी नहीं है। ध्यानी हो तो शिव जैसा हो। क्या अर्थ है? ध्यान का अर्थ होता हैः न विचार, वासना, न स्मृति, न कल्पना। ध्यान का अर्थ होता हैः भीतर सिर्फ होना मात्र। इसीलिए शिव को मृत्यु का, विध्वंस का, विनाश का देवता कहा है। क्योंकि ध्यान विध्वंस है--विध्वंस है मन का। मन ही संसार है। मन ही सृजन है। मन ही सृष्टि है। मन गया कि प्रलय हो गई। ऐसा मत सोचो कि किसी दिन प्रलय होती है। ऐसा मत सोचो कि एक दिन आएगा जब प्रलय हो जाएगी और सब विध्वंस हो जाएगा। नहीं, जो भी ध्यान में उतरता है, उसकी प्रलय हो जाती है। जो भी ध्यान में उतरता है, उसके भीतर शिव का पदार्पण हो जाता है। ध्यान है मृत्यु--मन की मृत्यु, "मैं" की मृत्यु, विचार का अंत। शुद्ध चैतन्य रह जाए--दर्पण जैसा खाली! कोई प्रतिबिंब न बने। तो एक तो यात्रा है ध्यान की। और फिर ध्यान से ही ज्ञान का जन्म होता है। जो ज्ञान ध्यान के बिना तुम इकट्ठा ...

व्यंग्य: सैयारा फिल्म नहीं, निब्बा-निब्बियों की कांव-कांव सभा है!

इन दिनों अगर आप सोशल मीडिया पर ज़रा भी एक्टिव हैं, तो आपने ज़रूर देखा होगा कि "सैयारा" नामक कोई फिल्म ऐसी छाई है जैसे स्कूल की कैंटीन में समोसे मुफ्त में बंट रहे हों। इस फिल्म का इतना क्रेज है कि मानो ये देखी नहीं तो सीधे स्वर्ग का टिकट कैंसिल हो जाएगा और नरक में आपको खौलते हुए गर्म तेल में तला जायेगा, वो भी बिना ब्रेक के लगातार। सच बताऊं तो, मैंने अब तक इस फिल्म को नहीं देखा। वास्तव में थियेटर में जाकर इस फिल्म को देखने का कोई इरादा भी नहीं है। क्योंकि मेरा दिल अब भी सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों के उन पंखों में अटका है जो बिना हिले भी आवाज़ करते हैं। लेकिन सोशल मीडिया पर पर जो तमाशा चल रहा है, वो देखकर लग रहा है कि या तो मैं बहुत ही बासी किस्म का मनुष्य हूं या फिर बाकी दुनिया ज़रा ज़्यादा ही Acting Class  से पास आउट है। एक साहब वीडियो में रोते-रोते इतने डूबे कि लगा अभी स्क्रीन से निकलकर ‘सैयारा’ के पायलट को गले लगा लेंगे।  दूसरी तरफ एक मैडम तो थिएटर की कुर्सी से चिपककर ऐसे चिल्ला रही थीं जैसे उनकी पुरानी गुम हुई टेडीबियर वापस मिल गई हो। कोई गला फाड़ रहा है, कोई आंखों से आंसुओं क...

जहाँ लौकी बोलती है, वहाँ कुकर फटता नहीं, पंचायत ने बता दिया, कहानी कहने के लिए कपड़े उतारने की ज़रूरत नहीं होती

आज के दौर में सिनेमाई कहानी कहने की दुनिया जिस मार्ग पर चल पड़ी है, वहाँ पटकथा से ज़्यादा त्वचा की परतों पर कैमरा टिकता है। नायक और नायिका के संवादों की जगह ‘सीन’ बोलते हैं और भावनाओं की जगह अंग प्रदर्शन ‘व्यू’ बटोरते हैं। इसे नाम दिया गया है ‘क्रिएटिव फ्रीडम’।  वेब सीरीजों के लिए बड़े बड़े बजट, चमकदार चेहरे और नग्न दृश्य अब ‘रियलिज़्म’ का नकली नकाब ओढ़ कर दर्शकों को भरमाते हैं। मगर इस सब के बीच अगर कोई सीरीज़ बिना चीखे, बिना झूठे नारे, और बिना कपड़े उतारे भी सीधे दिल में उतर जाए — तो वो "पंचायत" वेब सीरीज है। TVF की यह अनोखी पेशकश इस धारणा को चुनौती देती है कि दर्शकों को केवल ‘बोल्डनेस’ ही चाहिए। पंचायत ने बता दिया कि अगर आपकी कहानी सच्ची हो, तो सादगी ही सबसे बड़ी क्रांति बन जाती है। हालिया रिलीज "पंचायत" उन कहानियों के लिए एक तमाचा है जो यह मानकर चलती हैं कि जब तक किरदार बिस्तर पर नहीं दिखेंगे, तब तक दर्शक स्क्रीन पर नहीं टिकेगा। पंचायत दिखाती है कि गाँव की सबसे बड़ी लड़ाई किसी बिस्तर पर नहीं, बल्कि पंचायत भवन के फर्श पर लड़ी जाती है, कभी लौकी के नाम पर, तो कभी कु...