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AMU का अल्पसंख्यक दर्जा पर सुप्रीम कोर्ट की नई बेंच करेगी फैसला, जानिए आर्टिकल 30A और पुराना विवाद

                                  Supreme Court 
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) के अल्पसंख्यक संस्थान के दर्जे पर सवाल भारतीय कानूनी और राजनीतिक बहस का विषय रहा है। सुप्रीम कोर्ट का ताजा निर्णय, जो 1967 के अपने फैसले को पलटते हुए आया है, इस मुद्दे पर फिर से चर्चा को ताजा कर दिया है। आज़िज़ बाशा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पहले यह निर्णय लिया था कि कानून द्वारा स्थापित संस्थान को अल्पसंख्यक दर्जा नहीं मिल सकता। हालांकि, 8 नवंबर 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की नई सुनवाई के लिए सात जजों की बेंच गठित की है, जिसमें चार के मुकाबले तीन जजों ने इस फैसले को पलटते हुए AMU को अल्पसंख्यक दर्जा देने की बात की है। इस फैसले के एएमयू और अन्य समान संस्थाओं पर गहरे प्रभाव होंगे और संविधान में अल्पसंख्यक संस्थाओं के अधिकारों की व्याख्या को फिर से परिभाषित किया जाएगा।

कानूनी संदर्भ: आर्टिकल 30A क्या है
एएमयू के मामले से पहले यह समझना आवश्यक है कि भारतीय संविधान का आर्टिकल 30 क्या कहता है, जो अल्पसंख्यकों को उनके धार्मिक या भाषाई आधार पर अपने शैक्षिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रबंधन करने का अधिकार प्रदान करता है। भारतीय संविधान का आर्टिकल 30 इस प्रकार है-

"सभी अल्पसंख्यकों, चाहे वे धर्म या भाषा के आधार पर हों, को अपने चुनाव के शैक्षिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रबंधन करने का अधिकार होगा।"

यह प्रावधान अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करता है ताकि वे अपनी सांस्कृतिक, धार्मिक और शैक्षिक पहचान को बनाए रख सकें। यह सुनिश्चित करता है कि राज्य हस्तक्षेप से ये संस्थाएं स्वतंत्र रूप से काम करें और अपनी पहचान बनाए रखें।
आर्टिकल 30 अल्पसंख्यकों को उनके शैक्षिक संस्थानों के प्रशासन, पाठ्यक्रम और अन्य कार्यों को नियंत्रित करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। यह अधिकार समुदायों के शैक्षिक और सांस्कृतिक हितों की रक्षा करने के लिए है, ताकि अल्पसंख्यकों का संवैधानिक संरक्षण किया जा सके।

इसके अंतर्गत, अगर कोई समुदाय अपना शैक्षिक संस्थान स्थापित करता है, तो वह उस समुदाय के धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों को बनाए रखने के लिए एक संस्थान स्थापित करने का अधिकार प्राप्त करता है।

एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे पर ऐतिहासिक विवाद

1967 का सुप्रीम कोर्ट का फैसला (आज़िज़ बाशा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया)
एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे पर विवाद 1967 में आज़िज़ बाशा मामले से शुरू हुआ। उस समय, सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय लिया था कि एक कानून से स्थापित संस्थान अल्पसंख्यक दर्जा नहीं प्राप्त कर सकता। कोर्ट का तर्क था कि चूंकि एएमयू को भारत सरकार के संसद द्वारा एक कानून के माध्यम से स्थापित किया गया था, इसलिए यह संविधान के आर्टिकल 30 के तहत अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा प्राप्त नहीं कर सकता।

इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि, हालांकि एएमयू का संबंध मुस्लिम समुदाय से है, लेकिन यह एक सार्वजनिक संस्थान है, जिसे कानून द्वारा स्थापित किया गया है। इसलिए यह अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में नहीं माना जा सकता। यह निर्णय भविष्य में अन्य समान संस्थाओं के अल्पसंख्यक दर्जे के मामलों में कानूनी आधार बना। यह फैसला अल्पसंख्यक समुदायों के शैक्षिक संस्थानों के अधिकारों पर एक अहम मोड़ साबित हुआ।

1981 में एएमयू एक्ट में संशोधन
1981 में, एएमयू एक्ट में संशोधन किया गया, जिसमें स्पष्ट रूप से एएमयू को मुस्लिम समुदाय द्वारा स्थापित एक विश्वविद्यालय के रूप में पहचाना गया था। यह संशोधन उन लंबे समय से चले आ रहे मुस्लिम समुदाय के तर्कों का जवाब था कि एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में मान्यता दी जाए। यह संशोधन 1967 के फैसले के विरोध में था, जिसमें कहा गया था कि एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में नहीं माना जा सकता।

यह संशोधन महत्वपूर्ण था क्योंकि इसके द्वारा यह कानूनी आधार प्रदान किया गया था कि एएमयू मुस्लिम समुदाय द्वारा स्थापित किया गया था, और इसलिए उसे आर्टिकल 30 के तहत अल्पसंख्यक दर्जा मिलने का हक था।

 2006 का इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला
2006 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक विवादास्पद फैसला सुनाया, जिसमें एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में मान्यता देने से इंकार कर दिया। कोर्ट का कहना था कि एएमयू को मुस्लिम समुदाय द्वारा नहीं बल्कि संसद के एक कानून द्वारा स्थापित किया गया था, जो आर्टिकल 30 के प्रावधानों के अनुरूप नहीं था। कोर्ट ने यह भी कहा कि एएमयू में मेडिकल पोस्टग्रेजुएट कोर्सेस के लिए मुस्लिम छात्रों को आरक्षण देना संविधान के खिलाफ था, क्योंकि एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में स्वीकार नहीं किया गया था।

यह फैसला मुस्लिम समुदाय के लिए एक झटका था, क्योंकि इससे एएमयू को विशेष शैक्षिक लाभ प्रदान करने का अधिकार सीमित हो गया था। यह फैसला यह भी साबित करता है कि एक संस्थान की कानूनी स्थिति उसके अल्पसंख्यक अधिकारों के निर्धारण में कैसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

2019 में सात जजों की बेंच को संदर्भ
एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे पर विवाद 2019 में और बढ़ गया, जब सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को सात जजों की बेंच को सौंप दिया। यह निर्णय 2006 के इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले और बाद की कई याचिकाओं को चुनौती देने के बाद लिया गया था।
यह मामला सिर्फ एएमयू के लिए नहीं बल्कि उन सभी संस्थाओं के लिए अहम था जो किसी धार्मिक या सांस्कृतिक समुदाय द्वारा स्थापित की गई हैं, लेकिन जिन्हें कानून के तहत राज्य के नियंत्रण में रखा गया है। यह सुप्रीम कोर्ट के लिए आर्टिकल 30 की व्याख्या और अल्पसंख्यक अधिकारों के मुद्दे पर एक महत्वपूर्ण परीक्षा था।

8 नवंबर 2024 का सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण निर्णय
8 नवंबर 2024 को सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बेंच ने अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसमें 1967 के फैसले को पलटते हुए एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में मान्यता दी। यह फैसला इसलिए अहम है क्योंकि इसमें सुप्रीम कोर्ट ने माना कि एक कानून द्वारा स्थापित संस्थान को भी अगर वह अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा स्थापित किया गया हो तो उसे अल्पसंख्यक दर्जा मिल सकता है।

मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने इस निर्णय का नेतृत्व करते हुए कहा कि एक संस्थान का अल्पसंख्यक दर्जा केवल इसके स्थापना के तरीके से नहीं, बल्कि इसके स्थापक समुदाय, इसके वित्तीय स्रोत, और इसके संस्थापक के उद्देश्य को देखते हुए तय किया जाना चाहिए। उन्होंने यह कहा कि एएमयू की स्थापना मुसलमान समुदाय के हितों के लिए की गई थी, इसलिये इसे अल्पसंख्यक संस्थान माना जाना चाहिए।

तीन जजों की असहमत राय
हालांकि इस फैसले में अधिकांश जजों ने एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा देने का समर्थन किया, लेकिन तीन जजों ने असहमत राय दी। न्यायमूर्ति सूर्यकांत, दीपंकर दत्ता और एससी शर्मा ने इस निर्णय का विरोध करते हुए कहा कि एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा नहीं दिया जा सकता, क्योंकि यह एक कानून द्वारा स्थापित सार्वजनिक विश्वविद्यालय है। उन्होंने यह भी कहा कि इस प्रकार की पहचान से संविधान की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति पर प्रभाव पड़ सकता है।

संविधान का अनुच्छेद 30 क्या है?
संविधान का अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यक समुदायों को शैक्षिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रबंधन करने का अधिकार प्रदान करता है। यह अनुच्छेद अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा, संस्कृति और धर्म को बनाए रखने और बढ़ावा देने के लिए शिक्षण संस्थान स्थापित करने का अधिकार देता है। इन संस्थानों में वे अपनी भाषा और संस्कृति के अनुसार शिक्षा देने का अधिकार रखते हैं।

अल्पसंख्यक समुदाय अपने संस्थान में प्रवेश, शिक्षा और परीक्षा का संचालन कर सकते हैं और वे अपने संस्थान के नियम और प्रबंधन तय कर सकते हैं। इन संस्थानों का प्रशासन भी उन्हीं के हाथ में होता है। हालांकि, इन शिक्षण संस्थानों को सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त होना चाहिए और सरकार चाहें तो इन संस्थानों को वित्तीय सहायता भी प्रदान कर सकती है।

अनुच्छेद 30(1) कहता है कि सभी अल्पसंख्यकों को, चाहे वे धर्म या भाषा के आधार पर हों, अपनी पसंद के शैक्षिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रबंधन करने का अधिकार होगा। अनुच्छेद 30(1A) अल्पसंख्यक समूहों द्वारा स्थापित शैक्षणिक संस्थानों की संपत्ति के अधिग्रहण के लिए धन निर्धारण से संबंधित है।

अनुच्छेद 30(2) कहता है कि जब सरकार सहायता प्रदान करती है, तो उसे किसी भी शैक्षणिक संस्थान के साथ इस आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिए कि वह किसी अल्पसंख्यक द्वारा प्रबंधित है, चाहे वह धर्म या भाषा के आधार पर हो। अनुच्छेद 29 भी अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करता है और यह सुनिश्चित करता है कि उन्हें अपनी भाषा, लिपि या संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार है।

AMUएमयू को मिलने वाले अनुदान में लगातार वृद्धि: एक नजर
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) को पिछले कुछ वर्षों में सरकार से मिलने वाले अनुदान में लगातार वृद्धि देखी गई है, जिससे विश्वविद्यालय के शैक्षिक और शोध कार्यों को मजबूती मिली है। सरकार हर साल विश्वविद्यालय के संचालन के लिए बजट निर्धारित करती है, और ये आंकड़े समय के साथ बढ़ते गए हैं।
वर्ष 2022-23 में एएमयू को 1180 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 1552.30 करोड़ रुपये का अनुदान दिया गया, जो विश्वविद्यालय की बढ़ती जरूरतों और योगदानों को दर्शाता है। 2019-2023 के बीच, एएमयू को कुल 5467 करोड़ रुपये का अनुदान प्राप्त हुआ है।

मोदी सरकार के दौरान एएमयू को मिले अनुदान का विवरण:

  • 2014-15: 673 करोड़ रुपये  
  • 2015-16: 825 करोड़ रुपये  
  • 2016-17: 894 करोड़ रुपये  
  •  2017-18: 1106 करोड़ रुपये  
  • 2018-19: 1009 करोड़ रुपये  
  • 2019-20: 1180 करोड़ रुपये  
  • 2020-21: 1520 करोड़ रुपये  
  • 2021-22: 1214 करोड़ रुपये  

इसके अलावा, एएमयू को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी), विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी), जैव प्रौद्योगिकी विभाग (डीबीटी), भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर), शिक्षा मंत्रालय, केंद्रीय यूनानी चिकित्सा अनुसंधान परिषद (सीसीआरयूएम), परमाणु ऊर्जा विभाग (डीएई), अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय (एमएमए), और राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) जैसे कई अन्य संस्थाओं से भी अनुदान मिला है।

ये वित्तीय सहायता विश्वविद्यालय के विकास, शोध, और शैक्षिक उद्देश्यों को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है, जिससे एएमयू शिक्षा और अनुसंधान के क्षेत्र में उत्कृष्टता का प्रतीक बन रहा है।

संविधान सभा में बहस
8 दिसंबर 1948 को संविधान सभा ने मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा देने की आवश्यकता पर बहस की। एक सदस्य ने इस अनुच्छेद के दायरे को भाषाई अल्पसंख्यकों तक सीमित करने के लिए एक संशोधन पेश किया, और तर्क दिया कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य को धर्म के आधार पर अल्पसंख्यकों को मान्यता नहीं देनी चाहिए। वहीं, एक अन्य सदस्य ने भाषाई अल्पसंख्यकों को उनकी भाषा और लिपि में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने का मौलिक अधिकार देने का प्रस्ताव रखा, क्योंकि वे अल्पसंख्यक भाषाओं की स्थिति को लेकर चिंतित थे, खासकर उन क्षेत्रों में जहां इनकी संख्या अधिक थी। संविधान सभा ने इन प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया।

✍️... रघुनाथ सिंह


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