यात्रा शुरू होते ही माहौल सामान्य था। लेकिन जैसे ही बस ने गति पकड़ी, एक उत्साही छात्र ने मोबाइल निकालकर सीधे ड्राइवर को सौंप दिया। उसकी मासूमियत देख ऐसा लगा कि मानो ड्राइवर को पता हो कि साहित्य की इस यात्रा का असली उद्देश्य क्या है।
बस में बजा पहला गाना
बलमा, बलमा, तेरी चाल निराली रे! इस गाने के साथ बस का माहौल वैसा हो गया जैसे जेल में बंद कैदियों को अचानक नशा करने का मौका मिल गया हो। पूरा “जनरेशन Z” अपनी जगह से खड़ा होकर ऐसे नाचने लगा मानो यह उनकी आज़ादी का दिन हो। यह नृत्य सिर्फ मनोरंजन नहीं था, यह उस दबे हुए विद्रोह का प्रतीक था जो 12वीं तक माता-पिता की जेलर जैसी निगरानी में दम तोड़ रहा था।
इसके बाद गाना बजा: चिकनी चमेली। गाने ने बस में मौजूद हर छात्र को मंच पर खड़ा कर दिया। बस ऐसी झूम रही थी कि ऐसा लगा जैसे यह गाना सड़क पर नहीं, किसी डांस फ्लोर पर बज रहा हो।
जब गानों ने बेतुकेपन की हदें पार कीं
जैसे-जैसे सफर आगे बढ़ा, गानों का स्तर और हास्यास्पद होता गया। कमरिया लॉलीटॉप लागे.... जिला टॉप लागे के साथ छात्रों का जोश बढ़ता गया। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह बस साहित्य के आयोजन स्थल पर नहीं, बल्कि भोजपुरी फिल्म के सेट पर पहुंचने वाली है।
इसके बाद बजा: जिसको डांस नहीं करना है, जाके अपनी भैंस चराए!। इस गाने ने तो छात्रों के उन साथियों को भी नाचने पर मजबूर कर दिया, जो चुपचाप कोने में बैठे थे। वे सोचने लगे कि यदि नहीं नाचे तो कहीं सच में भैंस चराने न भेज दिए जाएं।
बस में गूंजने वाले गानों की श्रृंखला यहीं खत्म नहीं हुई। आंटी पुलिस बुला लेगी ने छात्रों के भीतर के विद्रोह को हवा दी। तेरी अखियों का यो काजल... ने माहौल को और बना दिया। लेकिन जब “लाला लाला घूंघट काहे को डाला...” और झलक दिखला जा, एक बार आजा आजा... बजा, तो ऐसा लगा मानो बस के भीतर कोई भूतों की पार्टी चल रही हो।
साहित्य के दर्शन से पहले धूम-धड़ाका
दिल्ली में प्रवेश करते ही छात्रों का जोश अपने चरम पर था। बस के भीतर के इस माहौल को देखकर ऐसा नहीं लग रहा था कि ये छात्र साहित्य से कुछ सीखने जा रहे हैं। ऐसा लग रहा था कि यह यात्रा सिर्फ उनके भीतर के डांस और संगीत प्रेम को बाहर निकालने का एक बहाना थी।
साहित्य परसो तक में छात्रों की समझ
आखिरकार, छात्र "साहित्य परसो तक" के आयोजन स्थल पर पहुंचे। अंदर जाकर उन्होंने क्या सीखा, यह तो भगवान ही जानें। लेकिन आयोजन के बाद उनकी चर्चा का केंद्र कोई साहित्यकार नहीं था, बल्कि तमाम गानों वह प्लेलिस्ट थी जिसने पूरे सफर को एक यादगार नृत्य यात्रा बना दिया।
आधुनिक शिक्षा प्रणाली और कैद में बचपन
यहां एक बार रुककर सोचने की जरूरत है। ये बगड़म छात्र कौन थे? वे आधुनिक शिक्षा प्रणाली की देन थे, जो उन्हें किताबों से ज्यादा कोचिंग क्लास और मोबाइल में उलझाए रखती है। 12वीं तक उनके माता-पिता जेलर की तरह उन पर नजर रखते हैं—“यहां मत जाओ, वहां मत जाओ, पढ़ाई करो, और बस पढ़ाई करो।”
नतीजा? जैसे ही ये बच्चे घर छोड़ते हैं, उनके अंदर दबी बगावत 'बलमा' गाने पर नाचकर बाहर आती है।
गाने पर नाचते हुए उनकी ऊर्जा कुछ ऐसी थी कि अगर भौतिकी का नियम 'गुरुत्वाकर्षण' थोड़ी देर के लिए रुक जाता, तो बस आसमान में उड़ जाती।
यह यात्रा इस बात का प्रतीक थी कि आज के युवा साहित्य और संस्कृति के बीच संगीत और मनोरंजन को अधिक महत्व देते हैं। साहित्य से जुड़ने का उनका तरीका अनोखा है—शायद किताबों से कम और गानों से ज्यादा।
यह सफर सिर्फ एक यात्रा नहीं था, यह था एक पीढ़ी की सोच और समझ का प्रतीक। अगड़म अकादमी के छात्रों ने साहित्य परसो तक से क्या लिया, यह तो पता नहीं, लेकिन उन्होंने रास्ते में बगड़म छात्रों ने सबको यह दिखा दिया कि साहित्यिक यात्रा में भी मस्ती और मनोरंजन का स्थान कैसे बनाया जा सकता है।
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर
बस-यूंही -रघुनाथ
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