ट्रंप का ट्रैप: बांग्लादेश के सपनों पर USAID का लॉकडाउन
जब दुनिया अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की वापसी का जश्न मना रही थी, तब बांग्लादेश में सरकारी गलियारों में मातम का माहौल था। कारण? एक झटके में USAID फंडिंग पर रोक लगाने वाला ट्रंप का नया 'मास्टरस्ट्रोक'। मानो व्हाइट हाउस से एक फरमान नहीं, बल्कि बांग्लादेश के विकास सपनों पर सीधी 'सर्जिकल स्ट्राइक' कर दी गई हो।
काम बंद, पैसा बंद, और सपने भी बंद!"
ट्रंप साहब ने राष्ट्रपति पद की शपथ लिए पांच दिन ही हुए थे कि उन्होंने तुरंत 'एक्सक्यूटिव ऑर्डर' जारी कर दिया। नतीजा? USAID का बजट बांग्लादेश के लिए एकदम ठप्प। आदेश में सख्त लहजे में कहा गया– "जो भी फंडिंग के भरोसे था, अब खुद को संभाले। और हां, नया ऑर्डर आने तक एक भी डॉलर की उम्मीद न करे!"
USAID ने भी कोई देरी नहीं की। सभी एनजीओ, संस्थाओं और परियोजनाओं को पत्र भेज दिया गया– "जितना काम हुआ, बहुत हुआ। अब अपने बस्ते बांधिए और तब तक इंतजार कीजिए, जब तक ट्रंप जी का दिल पिघल न जाए!"
बांग्लादेश: अमेरिका की ‘सहायता’ लत से ‘स्वतंत्रता’ संघर्ष तक
फ्री प्रेस जर्नल के मुताबिक बांग्लादेश के लिए यह झटका किसी सदमे से कम नहीं। वहां की सरकार जो USAID के फंडिंग पाइपलाइन को ‘अमृतधारा’ मान बैठी थी, अब खाली खजाने को देखकर सोच रही है कि काश, इस पैसे को थोड़ी समझदारी से इस्तेमाल किया होता। सरकारी अधिकारी, जिनका सारा ध्यान 'अमेरिका प्रेम' पर था, अब अपने फाइलों में कुछ 'स्वदेशी उपाय' तलाश रहे हैं, लेकिन... कड़ी मेहनत किसे पसंद है?
पिछले कुछ वर्षों में USAID ने 2.4 बिलियन डॉलर की मदद दी थी, जिससे रोहिंग्या संकट, बाढ़ राहत, और विकास योजनाएं चल रही थीं। अब यह रकम इतिहास बन गई है, और बांग्लादेश सरकार को अहसास हो रहा है कि यह ‘इश्क़ नहीं आसान, USAID का फंडिंग पाना...’
रोहिंग्या, राहत और रीढ़ की हड्डी
रोहिंग्या शरणार्थियों की भारी आबादी से जूझ रहे बांग्लादेश को सबसे बड़ा झटका इस फैसले से लगा है। सरकार की हालत ऐसी हो गई है कि मानो कोई कहे– "रोटी ले लो, पर मक्खन वापस दो!" USAID का पैसा यहां सिर्फ मदद नहीं, बल्कि सरकारी योजनाओं की ‘रीढ़ की हड्डी’ बन चुका था। अब जब अमेरिका ने हाथ खींच लिया है, तो देश खुद को संभालने के नए तरीके ढूंढ रहा है – लेकिन क्या आत्मनिर्भरता इतनी आसान होती है?
ट्रंप का 'नया अमेरिका', बांग्लादेश का 'पुराना दर्द'
ट्रंप साहब को तो आदत ही है दुनिया को चौंकाने की। ऑफिस में बैठते ही उन्होंने ‘अमेरिका फर्स्ट’ का नारा फिर से गूंजा दिया और कहा– "अब और किसी के घर मुफ्त लंच नहीं मिलेगा!" इस फैसले का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि अमेरिकी सैन्य मदद इजराइल और मिस्र के लिए जारी रहेगी, लेकिन बाकी देशों के लिए ‘पर्सनल फंडिंग कट’ लागू हो गया है।
विदेश मंत्री मार्को रुबियो, जो खुद इस फैसले के मास्टरमाइंड हैं, ने कहा कि यह कदम अमेरिका के "फिजूलखर्ची हटाओ" अभियान का हिस्सा है। वहीं, बांग्लादेश में लोग सोच रहे हैं– "अरे, ट्रंप साहब! हमसे ज्यादा फिजूलखर्ची कहां हो सकती थी?"
बांग्लादेश का संकट - नई रणनीति की तलाश
बांग्लादेश की सरकार अब नए मदददाताओं की तलाश में है। चर्चा यह भी हो रही है कि क्या अब चीन को बुलाया जाए? सोशल मीडिया पर मीम्स की बाढ़ आ गई है, जहां लोग कह रहे हैं– "USAID गया तो क्या हुआ, चीन है न!"
सरकार के मंत्रियों का कहना है कि वे आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ेंगे, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही बयान कर रही है। सरकारी अधिकारी अभी भी उम्मीद लगाए बैठे हैं कि शायद ट्रंप साहब का मूड बदले और फिर से डॉलर की बारिश हो जाए। लेकिन फिलहाल उम्मीदें सिर्फ फाइलों तक सीमित हैं।
सरकारी हलकों में ‘बजट यज्ञ'
"कम खर्च में ज्यादा विकास" का मंत्र दोहराया जा रहा है, लेकिन असली चिंता यह है कि इस यज्ञ में 'घी' कौन डालेगा? वित्त मंत्री ने बयान दिया है कि हम नए संसाधनों की तलाश करेंगे, लेकिन अंदरखाने अधिकारी अब फाइलों में ‘पुराने कर्ज़’ की रीसाइक्लिंग करने में व्यस्त हैं।
बांग्लादेश की जनता – कौन सुनेगा फरियाद?
जहां सरकार इस फैसले से निपटने की रणनीति बना रही है, वहीं आम जनता के लिए सवाल यह है – "क्या अब विकास भी बंद?" लोग सोच रहे हैं कि उनकी नौकरी, स्वास्थ्य और बुनियादी सुविधाएं कब तक ठहरेंगी।
कुछ नागरिक कह रहे हैं– "हमें पता होता कि USAID की फंडिंग इतनी जरूरी है, तो हम खुद ही व्हाइट हाउस जाकर ट्रंप साहब को रोक लेते!"
क्या बांग्लादेश को 'खुद पर भरोसा' होगा?
ट्रंप के इस फैसले ने बांग्लादेश के लिए एक बड़ा सबक छोड़ा है – आत्मनिर्भरता जरूरी है, लेकिन जब तक ‘फ्री की फंडिंग’ मिलती रहे, तब तक कोई खुद पर क्यों भरोसा करेगा? अब सरकार के सामने चुनौती है कि क्या वह नए विकास मॉडल अपनाएगी या फिर पुरानी मदद की राह तकती रहेगी।
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि बांग्लादेश को इस मौके का फायदा उठाकर अपनी नीतियों में बदलाव करना चाहिए। लेकिन समस्या यह है कि बदलाव मुश्किल है और डॉलर का आकर्षण छोड़ना उससे भी ज्यादा मुश्किल।
बांग्लादेश का USAID 'ब्रेकअप'
यह पूरा घटनाक्रम बांग्लादेश के लिए एक झटका ही नहीं, बल्कि चेतावनी है कि ‘मुफ्त का माल’ ज्यादा दिन नहीं टिकता। ट्रंप ने अपने स्टाइल में यह जता दिया कि अमेरिका अब किसी पर फिजूल खर्च नहीं करेगा।
अब देखना यह है कि बांग्लादेश इस ब्रेकअप से सबक लेता है या फिर नए ‘डोनर’ की तलाश में निकल पड़ता है। लेकिन एक बात तय है – अब मुफ्त के पैसे पर निर्भरता की आदत को छोड़ने का समय आ गया है।
जाते-जाते बांग्लादेश के लिए बस यही कहा जा सकता है–
"चलो, अब कुछ खुद के पैरों पर भी चलना सीख लो!"
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर...बस-यूंही-रघुनाथ
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