- केंद्र सरकार का निर्णय: फेल न करने की नीति खत्म, अब गुणवत्ता की ओर कदम बढ़े
- वर्षों से चल रही विसंगतियों का समाधान: अब बच्चों को मिलेगा परीक्षा का अवसर
- शिक्षा की असली तस्वीर: स्कूलों में सुधार और बच्चों के समग्र विकास पर ध्यान
शिक्षा केवल ज्ञान का प्रसार नहीं है, यह समाज के विकास का आधार है। एक बेहतर शिक्षा प्रणाली न केवल विद्यार्थियों के व्यक्तित्व का विकास करती है, बल्कि राष्ट्र के भविष्य को भी आकार देती है। इसी सोच के साथ, भारत में वर्ष 2009 में शिक्षा का अधिकार कानून (RTE) लागू किया गया था।
इस कानून का उद्देश्य सभी बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करना था। परंतु इस कानून की एक बड़ी खामी, जिसे 'फेल न करने की नीति' के नाम से जाना गया, ने शिक्षा प्रणाली की गुणवत्ता को कमजोर कर दिया।
यह नीति 2010 से लागू की गई थी, जिसके तहत आठवीं कक्षा तक के बच्चों को बिना किसी परीक्षा में फेल किए, अगली कक्षा में प्रमोट किया जाता था। नीति के पीछे यह तर्क दिया गया कि फेल होने से बच्चों का मनोबल गिरता है और वे स्कूल छोड़ देते हैं। हालांकि यह तर्क सीमित रूप से सही हो सकता है, लेकिन इसका दूरगामी प्रभाव नकारात्मक रहा।
इस नीति ने स्कूलों, विशेषकर सरकारी स्कूलों, में शिक्षा की गुणवत्ता को गंभीर रूप से प्रभावित किया। सरकारी स्कूलों में मुख्यतः उन बच्चों का नामांकन होता है, जो आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर वर्ग से आते हैं। इनके अभिभावकों के पास बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान देने के लिए समय या संसाधन नहीं होते। परीक्षा पास करने की अनिवार्यता खत्म होने से बच्चों की पढ़ाई की गंभीरता भी कम हो गई।
पिछले एक दशक में कई सर्वेक्षणों ने यह दिखाया कि 'फेल न करने की नीति' ने शिक्षा के स्तर को गिरा दिया। 'प्रथम' संस्था की रिपोर्ट के अनुसार, आठवीं कक्षा के छात्रों को चौथी कक्षा का गणित नहीं आता और पांचवीं कक्षा के छात्र दूसरी कक्षा की किताबें पढ़ने में असमर्थ हैं। यह आंकड़े न केवल चिंताजनक थे, बल्कि यह भी संकेत देते थे कि हमारी शिक्षा प्रणाली में गहरी खामियां हैं।
इस नीति का एक और प्रभाव यह रहा कि निजी और सरकारी स्कूलों के बीच की खाई बढ़ती गई। जहां निजी स्कूल अपने शिक्षण स्तर को बनाए रखने में सक्षम रहे, वहीं सरकारी स्कूलों का स्तर गिरता गया। इसका परिणाम यह हुआ कि सरकारी स्कूलों में नामांकन की संख्या घटने लगी और निजी स्कूलों की मांग बढ़ गई।
वर्ष 2019 में केंद्र सरकार ने इस नीति का पुनर्मूल्यांकन किया और यह निर्णय लिया कि पांचवीं और आठवीं कक्षा में छात्रों को परीक्षा के आधार पर प्रमोट किया जाएगा। हालांकि इसे लागू करने की जिम्मेदारी राज्यों पर छोड़ दी गई। चूंकि शिक्षा समवर्ती सूची में आती है, इसलिए इस नीति को लागू करने के लिए राज्यों की सहमति आवश्यक थी।
अब, केंद्र सरकार ने यह सुनिश्चित किया है कि देशभर के सभी राज्यों में यह नीति लागू होगी। इसके तहत, पांचवीं और आठवीं कक्षा में फेल होने वाले छात्रों को दो महीने बाद पुनः परीक्षा देने का अवसर मिलेगा। इस दौरान, स्कूल उनकी कमजोरियों को सुधारने के लिए विशेष प्रयास करेंगे।
फेल न करने की नीति के पीछे यह तर्क दिया गया था कि फेल होने से बच्चों का आत्मविश्वास टूटता है और वे स्कूल छोड़ देते हैं। हालांकि, वास्तविकता यह है कि शिक्षा का उद्देश्य केवल बच्चों को कक्षा में बनाए रखना नहीं है, बल्कि उन्हें ऐसा ज्ञान प्रदान करना है जो उनके भविष्य में काम आए।
यह सही है कि परीक्षा का तनाव बच्चों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है, लेकिन यह भी सत्य है कि परीक्षा बच्चों को बेहतर प्रदर्शन के लिए प्रेरित करती है। परीक्षा न केवल बच्चों के ज्ञान का मूल्यांकन करती है, बल्कि उन्हें आत्मनिर्भर बनने की दिशा में भी प्रोत्साहित करती है।
यशपाल कमेटी की 1992 की रिपोर्ट ने बच्चों के स्कूल छोड़ने के मुख्य कारणों में 'बस्ते का बोझ' और कठिन पाठ्यक्रम को जिम्मेदार ठहराया। आज भी यह समस्या बनी हुई है। परीक्षा प्रणाली को प्रभावी बनाने के साथ-साथ पाठ्यक्रम को सरल और व्यावहारिक बनाना भी आवश्यक है।
फेल न करने की नीति ने शिक्षकों की जिम्मेदारी को कम कर दिया था। शिक्षक यह मानने लगे थे कि बच्चों को पास या फेल करना उनकी जिम्मेदारी नहीं है। लेकिन , इस नीति के बदलाव के साथ, शिक्षकों को छात्रों के प्रदर्शन के प्रति अधिक जवाबदेह बनाया गया है।
शिक्षकों का प्रशिक्षण भी शिक्षा प्रणाली का एक महत्वपूर्ण पहलू है। शिक्षकों को आधुनिक शिक्षण पद्धतियों और तकनीकों से अवगत कराना आवश्यक है। इससे न केवल शिक्षकों का प्रदर्शन सुधरेगा, बल्कि छात्रों को भी बेहतर शिक्षा मिलेगी।
अभिभावकों की भूमिका भी शिक्षा प्रणाली में महत्वपूर्ण होती है। स्कूल और अभिभावकों के बीच संवाद और सहयोग बढ़ाने के लिए विभिन्न कार्यक्रम और कार्यशालाओं का आयोजन किया जा सकता है। इससे बच्चों के शैक्षणिक प्रदर्शन में सुधार होगा।
ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूल छोड़ने की प्रवृत्ति अधिक है। इसका मुख्य कारण आर्थिक समस्याएं, सामाजिक बाधाएं और शिक्षा का अपर्याप्त बुनियादी ढांचा है।
सरकार ने मिड-डे मील योजना, सर्व शिक्षा अभियान, और अन्य योजनाओं के माध्यम से शिक्षा को प्रोत्साहित करने की कोशिश की है। हालांकि इन योजनाओं ने स्कूल में नामांकन बढ़ाया है, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता पर उनका प्रभाव सीमित रहा है।
ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए डिजिटल तकनीकों का उपयोग किया जा सकता है। ऑनलाइन कक्षाओं, ई-लर्निंग सामग्री और स्मार्ट क्लासरूम जैसी सुविधाएं ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा को सुलभ और प्रभावी बना सकती हैं।
फेल न करने की नीति को समाप्त करना शिक्षा में सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इससे न केवल छात्रों का आत्मविश्वास बढ़ेगा, बल्कि शिक्षकों और अभिभावकों की जिम्मेदारी भी बढ़ेगी।
परीक्षा प्रणाली को प्रभावी बनाने से शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार होगा। कमजोर छात्रों को अतिरिक्त सहायता प्रदान की जाएगी, जिससे वे अपनी कमजोरियों को दूर कर सकेंगे।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने शिक्षा प्रणाली में व्यापक सुधार का खाका प्रस्तुत किया है। इस नीति के तहत, शिक्षा को अधिक व्यावसायिक और कौशल-आधारित बनाने का प्रस्ताव है। फेल न करने की नीति में बदलाव इस दिशा में एक कदम है।
हालांकि फेल न करने की नीति का समाप्त होना एक स्वागत योग्य कदम है, लेकिन यह शिक्षा प्रणाली में सुधार के लिए पर्याप्त नहीं है।
पाठ्यक्रम को आधुनिक समय की आवश्यकताओं के अनुसार अद्यतन करना आवश्यक है। व्यावसायिक शिक्षा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, और सामाजिक विज्ञान को प्राथमिकता देनी चाहिए।
शिक्षा के बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाने के लिए अधिक निवेश की आवश्यकता है। स्कूलों में स्मार्ट क्लासरूम, प्रयोगशालाएं और पुस्तकालयों जैसी सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए।
गरीब और वंचित वर्गों के बच्चों के लिए शिक्षा को सुलभ बनाना अभी भी एक बड़ी चुनौती है। इसके लिए छात्रवृत्ति, मुफ्त पाठ्यपुस्तकें और अन्य सहायता योजनाओं का विस्तार करना आवश्यक है।
शिक्षा का उद्देश्य केवल छात्रों को कक्षाओं में बनाए रखना नहीं है, बल्कि उन्हें भविष्य के लिए तैयार करना है। फेल न करने की नीति को समाप्त कर, केंद्र सरकार ने शिक्षा प्रणाली में सुधार की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है।
यह समय है कि शिक्षा को केवल प्रमाणपत्र तक सीमित न रखकर, इसे वास्तविक ज्ञान और कौशल का माध्यम बनाया जाए। इस बदलाव से न केवल छात्रों का भविष्य उज्ज्वल होगा, बल्कि यह शिक्षा प्रणाली को भी अधिक प्रभावी और जिम्मेदार बनाएगा।
✍️... रघुनाथ सिंह
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