नेताजी का पारिवारिक खेल: उपचुनाव या फैमिली मीटिंग?
उत्तर प्रदेश में जल्द ही 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होने वाले हैं, और समाजवादी पार्टी (सपा) ने अपने प्रत्याशियों की लिस्ट जारी कर दी है। लेकिन ठहरिए, इसे देखकर ऐसा लगता है कि यह लिस्ट कम और फैमिली फंक्शन की गेस्ट लिस्ट ज्यादा है!
जनता के चुनावी मैदान में उम्मीदवार नहीं, बल्कि नेताजी के घर के चिराग एक-एक कर जलते नजर आ रहे हैं। आखिर सियासत में अब 'पारिवारिक एकता' से बड़ा कोई नारा थोड़ी है!
सपा का PDA: 'परिवार, परिवार, और बस परिवार'
सपा ने इसे PDA (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) कहा है, पर असली मतलब है 'परिवार डोमिनेशन असेंबली'! पहले जो जनता के बीच PDA का मतलब हुआ करता था, अब वह नेताजी के घर के कमरे तक सिमट गया है।
अब देखिए करहल सीट, जो अखिलेश यादव के सांसद बनने से खाली हुई, वहाँ टिकट मिला किसे? तेज प्रताप यादव, जो और कोई नहीं, खुद अखिलेश यादव के भतीजे हैं! भाई, इसे कहते हैं सच्ची पारिवारिक सेवा।
फिर आइए कानपुर की सीसामऊ सीट पर। इरफान सोलंकी को सजा हो गई, तो उनके घर में कौन तैयार बैठा था? उनकी धर्मपत्नी, नसीम सोलंकी!
अब ये तो हद है, नेताजी के जेल जाने पर भी परिवार की सत्ता कायम रहेगी—कसम से, इसे कहते हैं 'पारिवारिक परंपरा'!
और क्या आपने सुना है कि अवधेश प्रसाद के सांसद बनने से मिल्कीपुर सीट खाली हुई? लेकिन घबराइए नहीं, पार्टी ने बेटे अजीत प्रसाद को मैदान में उतार दिया है।
आखिर ये सीटें 'किराए की दुकान' थोड़ी हैं, जो कोई भी आ जाए? यह तो पुश्तैनी विरासत है, और विरासत का ध्यान तो रखना ही पड़ता है!
अम्बेडकरनगर की कटेहरी सीट पर लालजी वर्मा की पत्नी शोभावती वर्मा उतर आई हैं और मिर्जापुर की मंझवा सीट पर रमेश बिंद की बेटी ज्योति बिंद।
भाई, यह उपचुनाव कम और पारिवारिक पुनर्मिलन ज्यादा लग रहा है।
कांग्रेस का दर्द: कहां बुलाएंगे हमें?
कांग्रेस इस पारिवारिक तमाशे को देखकर गुस्से में है। उनका कहना है कि उन्हें इस फैमिली मीटिंग में कोई दावत नहीं दी गई।
पिछली बार दोनों पार्टियों ने लोकसभा चुनाव साथ लड़ा था, पर इस बार लगता है कि नेताजी ने सोचा होगा, 'अरे, परिवार है, कांग्रेस क्यों परेशान हो?' कांग्रेस भी अब किसी कोने में बैठी सोच रही होगी, 'हम कब इनकी पार्टी में बुलाए जाएंगे?'
इस बीच, हरियाणा के चुनावों में आम आदमी पार्टी और सपा को नजरअंदाज करने का दु:ख कांग्रेस को और भी परेशान कर रहा है।
इन पार्टियों ने कांग्रेस को यह जताना शुरू कर दिया है कि अगर उन्होंने उन्हें तवज्जो दी होती, तो शायद कांग्रेस की किस्मत भी कुछ और होती।
अब कांग्रेस को अपनी गलतियों का पछतावा हो रहा है, और सपा अपने परिवार को सत्ता में बिठाने में व्यस्त है।
क्या अब राजनीति 'फैमिली ड्रामा' बन गई है?
सपा का यह कदम सवाल उठाता है कि क्या भारतीय राजनीति अब पारिवारिक धंधा बन गई है? क्या जनता के लिए टिकट देने का समय खत्म हो गया है और अब सिर्फ रिश्तेदारों का खेल शुरू हो गया है?
तो तैयार हो जाइए, इस उपचुनाव में आपको वोट नहीं देना, बल्कि यह तय करना है कि किस परिवार के किस सदस्य को सजा देना है! आखिर 'लोकतंत्र' में जनता का काम सिर्फ देखना ही तो है, असली खेल तो 'परिवार' का होता है।
अब जब अगली बार आप वोट डालने जाएं, तो याद रखें—यह चुनाव नहीं, फैमिली सीरियल का नया सीजन है!
न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर
बस-यूंही-रघुनाथ
Comments
Post a Comment