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भू-राजनीतिक ध्रुवीकरण: भारत-अमेरिका संबंधों में चुनौतियों और अवसरों का विश्लेषण


भारत-अमेरिका संबंध पिछले कुछ दशकों में तेजी से बदलते रहे हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बने वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य में भारत और अमेरिका के बीच संबंधों की स्थिति अक्सर बाहरी कारकों पर निर्भर रही है। विशेष रूप से, 1971 का साल इन संबंधों के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जब बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम के दौरान अमेरिका की भूमिका और उसके चीन के साथ गठजोड़ ने भारत के साथ उसके संबंधों में गहरा संकट पैदा कर दिया था। इसके बाद से दोनों देशों के बीच संबंधों में कई उतार-चढ़ाव आए हैं और आज रूस-यूक्रेन युद्ध और चीन की बढ़ती शक्ति के कारण एक बार फिर से इस संबंध की नींव हिल रही है। 

यह आलेख 1971 के भारत-अमेरिका संबंधों के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से शुरू होकर आज की जटिल भू-राजनीतिक परिस्थितियों तक की यात्रा करेगा। इसमें उन कारकों पर चर्चा की जाएगी, जिन्होंने इन संबंधों को प्रभावित किया है और यह भी देखा जाएगा कि इन चुनौतियों के बीच भारत कैसे अपनी कूटनीतिक और सामरिक नीतियों को संतुलित कर रहा है।

1971: भारत-अमेरिका संबंधों में सबसे बुरा दौर
वर्ष 1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध और बांग्लादेश की मुक्ति की लड़ाई भारत-अमेरिका संबंधों के सबसे काले अध्यायों में से एक थी। भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में हो रहे नरसंहार और विस्थापन के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया। इस युद्ध के दौरान अमेरिका ने पाकिस्तान का समर्थन किया, जबकि सोवियत संघ ने भारत के पक्ष में खड़ा हुआ। 

अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और उनके विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर की नीतियों के तहत, अमेरिका ने पाकिस्तान का समर्थन किया और चीन के साथ अपनी कूटनीतिक पहुंच को बढ़ाने के लिए पाकिस्तान को एक पुल के रूप में इस्तेमाल किया। यह चीन के साथ अमेरिका के संबंधों को पुनः स्थापित करने की एक महत्वपूर्ण रणनीति थी, लेकिन इसके चलते भारत के साथ अमेरिकी संबंधों में खटास आ गई। अमेरिका ने भारत को डराने के लिए अपने विमानवाहक पोत 'यूएसएस एंटरप्राइज' को हिंद महासागर में भेजा, जिसका उद्देश्य भारत को युद्ध से पीछे हटाना था। इसके अलावा, अमेरिका ने चीन को भी भारत पर हमला करने के लिए प्रोत्साहित किया, हालांकि चीन ने युद्ध में प्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप नहीं किया। 

यह वह समय था जब भारत ने अपनी कूटनीतिक नीतियों को पूरी तरह से सोवियत संघ की ओर मोड़ दिया और भारत-सोवियत संबंधों को मजबूत किया। साल 1971 के बाद, भारत और अमेरिका के संबंधों में ठंडापन आ गया और यह स्थिति कई वर्षों तक बनी रही।

1990 के दशक में संबंधों का पुनरुद्धार
साल 1990 के दशक की शुरुआत में सोवियत संघ के विघटन और शीत युद्ध की समाप्ति के बाद, वैश्विक राजनीतिक परिदृश्य में बड़े बदलाव आए। इस समय तक भारत और अमेरिका दोनों को नए वैश्विक माहौल में अपने-अपने हितों को फिर से परिभाषित करने की आवश्यकता महसूस हुई। 

भारत की ओर से, साल 1991 में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत के बाद अमेरिकी निवेश और व्यापारिक संबंधों की आवश्यकता महसूस की गई। वहीं, अमेरिका के लिए, चीन के बढ़ते प्रभुत्व को संतुलित करने के लिए भारत के साथ संबंधों को मजबूत करना एक रणनीतिक आवश्यकता बन गई। इस समय दोनों देशों के बीच व्यापारिक, तकनीकी और सामरिक सहयोग को नया रूप मिलने लगा। 

साल 1998 में, जब भारत ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किया, तो अमेरिका ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए, लेकिन दोनों देशों ने जल्दी ही संवाद स्थापित कर इन मुद्दों को सुलझा लिया। इस अवधि में, भारत-अमेरिका संबंधों में एक नया मोड़ आया और 2000 के दशक की शुरुआत में दोनों देशों के बीच रक्षा और सामरिक संबंधों में तेजी से सुधार हुआ।

21वीं सदी: अमेरिका और भारत के बढ़ते सामरिक हित
2000 के दशक की शुरुआत से भारत और अमेरिका के बीच संबंधों में काफी सुधार हुआ। अमेरिका ने भारत को चीन के खिलाफ एक रणनीतिक साझेदार के रूप में देखा। अमेरिका की "इंडो-पैसिफिक" नीति के तहत भारत को इस क्षेत्र में एक प्रमुख भूमिका निभाने के लिए प्रोत्साहित किया गया। साल 2008 में, अमेरिका और भारत के बीच असैनिक परमाणु समझौता हुआ, जिसने दोनों देशों के संबंधों को एक नई दिशा दी। इसके अलावा, रक्षा और तकनीकी सहयोग में भी काफी वृद्धि हुई।

भारत ने अमेरिकी रक्षा उपकरणों की खरीदारी शुरू की, और दोनों देशों ने कई संयुक्त सैन्य अभ्यास किए। अमेरिका के लिए, भारत एक महत्वपूर्ण सहयोगी के रूप में उभरा, विशेषकर तब, जब चीन की शक्ति और आक्रमकता एशिया में बढ़ती जा रही थी।

रूस-यूक्रेन युद्ध और भारत-अमेरिका संबंधों में नया मोड़
रूस-यूक्रेन युद्ध ने वैश्विक राजनीति को एक बार फिर से प्रभावित किया है। अमेरिका ने रूस पर कड़े प्रतिबंध लगाए हैं और वह चाहता है कि उसके सहयोगी देश भी रूस के साथ अपने व्यापारिक और सामरिक संबंधों को खत्म करें। लेकिन, भारत के लिए यह एक मुश्किल स्थिति है। भारत लंबे समय से रूस के साथ अपने रक्षा और ऊर्जा संबंधों को बनाए रखे हुए है। 

रूस से भारत को सैन्य उपकरणों की आपूर्ति एक प्रमुख कारण है, जिससे भारत रूस से अपने संबंधों को पूरी तरह से खत्म नहीं कर सकता। भारत की अधिकांश सैन्य उपकरणों की आपूर्ति रूस से होती है, और रूस ने हमेशा भारत के साथ अपने रक्षा संबंधों को प्राथमिकता दी है। 

हालांकि, अमेरिका भारत पर दबाव बना रहा है कि वह रूस के साथ अपने रक्षा सौदों को खत्म करे। विशेष रूप से, अमेरिकी प्रशासन ने भारत से जीई एफ-404 और एफ-414 इंजन की आपूर्ति में देरी की है, जो भारत के हल्के लड़ाकू विमान (एलसीए) के लिए महत्वपूर्ण हैं। इस देरी ने भारत में अमेरिकी विश्वास पर सवाल खड़े कर दिए हैं, खासकर तब, जब भारत को अपने पुराने मिग-21 विमानों को तेजी से बदलने की जरूरत है।

पूर्वोत्तर भारत और खालिस्तान पर अमेरिकी भूमिका
भारत-अमेरिका संबंधों में एक और महत्वपूर्ण मुद्दा भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र और खालिस्तान आंदोलन से जुड़ा है। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि अमेरिका पूर्वोत्तर भारत में अस्थिरता पैदा करने के लिए "कुकीलैंड" जैसे ईसाई बहुल राज्य के निर्माण का समर्थन कर सकता है। यह क्षेत्र पहले से ही संवेदनशील है, और वहां अस्थिरता भारत के लिए एक गंभीर चुनौती हो सकती है। 

इसके अलावा, अमेरिका में रहने वाले खालिस्तानी समर्थकों को लेकर भारत में पहले से ही चिंता रही है। यह आरोप है कि अमेरिका खालिस्तानी अलगाववादी आंदोलनों का अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन करता रहा है। इसने भारत-अमेरिका संबंधों पर नकारात्मक प्रभाव डाला है, खासकर तब, जब भारत अपनी संप्रभुता और अखंडता को बनाए रखने की कोशिश कर रहा है।

अमेरिका में नेतृत्व का प्रभाव: ट्रम्प बनाम बाइडन
भारत में कई लोग मानते हैं कि डोनाल्ड ट्रम्प की वापसी से भारत-अमेरिका संबंधों में सुधार हो सकता है। ट्रम्प प्रशासन के दौरान, अमेरिका ने चीन के खिलाफ भारत का खुलकर समर्थन किया था और दोनों देशों के बीच रणनीतिक साझेदारी में तेजी आई थी। 

दूसरी ओर, बाइडन प्रशासन के दौरान, भारत और अमेरिका के संबंधों में कुछ अस्थिरता देखने को मिली है। बाइडन प्रशासन का रूस-यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में भारत पर दबाव और कुछ मुद्दों पर अस्पष्ट नीतियों ने भारत के लिए कठिनाइयाँ पैदा की हैं। 

हालांकि, यह कहना गलत नहीं होगा कि नेतृत्व का परिवर्तन इन संबंधों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है। ट्रम्प के पास भू-राजनीतिक मुद्दों पर अधिक स्पष्टता थी, और उन्होंने भारत को चीन के खिलाफ एक प्रमुख रणनीतिक साझेदार के रूप में देखा। इसलिए, भारत में उम्मीद की जा रही है कि अगर ट्रम्प फिर से सत्ता में आते हैं, तो भारत-अमेरिका संबंधों में सकारात्मक बदलाव हो सकता है।

भविष्य की चुनौतियाँ और कूटनीतिक संतुलन
भारत के लिए मौजूदा भू-राजनीतिक परिदृश्य में संतुलन बनाए रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है। एक ओर, भारत को रूस के साथ अपने रक्षा और ऊर्जा संबंधों को बनाए रखना है, जबकि दूसरी ओर, उसे अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों के साथ अपने सामरिक और व्यापारिक संबंधों को भी मजबूत रखना है। 

इसके अलावा, चीन की बढ़ती शक्ति और आक्रमकता को संतुलित करने के लिए भारत-अमेरिका सहयोग महत्वपूर्ण हो सकता है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत की भूमिका को देखते हुए, अमेरिका के साथ उसकी साझेदारी सामरिक दृष्टि से अनिवार्य है। लेकिन इसके लिए भारत को अपनी स्वतंत्र विदेश नीति और सामरिक स्वायत्तता को भी बनाए रखना होगा।

भारत-अमेरिका संबंधों का मौजूदा दौर कूटनीतिक जटिलताओं से भरा हुआ है। जहां एक ओर, चीन का बढ़ता दबदबा और रूस के साथ भारत के पारंपरिक रक्षा संबंध इन संबंधों पर प्रभाव डाल रहे हैं, वहीं दूसरी ओर, अमेरिका के दबाव और अस्थिर नीतियां भारत के लिए नई चुनौतियां पैदा कर रही हैं। हालांकि, भारत को अपने सामरिक हितों को ध्यान में रखते हुए अमेरिका और रूस के बीच संतुलन बनाए रखना होगा। भविष्य में, नेतृत्व में बदलाव और भू-राजनीतिक परिस्थिति में परिवर्तन के साथ, इन संबंधों में नए अवसर और चुनौतियां देखने को मिल सकती हैं।


✍️... रघुनाथ सिंह

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