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लॉरेंस बिश्नोई की विरासत: गैंगस्टर से प्रकृति के संरक्षक तक


लॉरेंस बिश्नोई की विरासत: गैंगस्टर से प्रकृति के संरक्षक तक

  • अमृता देवी का साहसिक बलिदान: जब पेड़ों की रक्षा के लिए 363 लोग हुए शहीद
  • लॉरेंस बिश्नोई की आपराधिक विरासत से परे, बिश्नोई समाज की असली पहचान
  • खेजरली से लेकर आधुनिक आंदोलनों तक: बिश्नोई समाज की प्रकृति संरक्षण की यात्रा

हाल के दिनों में बिश्नोई समाज का नाम मीडिया में सुर्खियों में आया है, खासकर गैंगस्टर लॉरेंस बिश्नोई के कारण, जिसे कई आपराधिक गतिविधियों और हाई-प्रोफाइल मामलों में संलिप्त पाया गया है। हालांकि, लॉरेंस बिश्नोई की आपराधिक गतिविधियों के कारण पूरे बिश्नोई समाज को एक ही नजरिये से देखना उनके समृद्ध इतिहास और पर्यावरण संरक्षण में दिए गए अतुलनीय योगदान को अनदेखा करना है। बिश्नोई समाज का इतिहास प्रकृति और पर्यावरण के प्रति गहरे सम्मान और निस्वार्थ बलिदान से भरा है। उनकी यह परंपरा न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर भी पर्यावरण संरक्षण आंदोलनों को प्रेरित करती रही है। 

यह लेख बिश्नोई समाज के अद्वितीय योगदानों और 1730 के खेजरली नरसंहार की घटना पर ध्यान केंद्रित करता है, जहां 363 लोगों ने अमृता देवी के नेतृत्व में पेड़ों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। इसके साथ ही, यह भी बताया जाएगा कि कैसे इस बलिदान की विरासत आज भी पर्यावरण संरक्षण आंदोलनों को प्रेरित कर रही है। लेख इस बात का विश्लेषण करेगा कि लॉरेंस बिश्नोई की गतिविधियाँ उनके समाज की मूल्य-संहिता के विपरीत कैसे हैं और इस अंतर को समझने का प्रयास करेगा।

बिश्नोई समाज: एक परिचय
बिश्नोई समाज मुख्य रूप से राजस्थान के थार रेगिस्तान और भारत के उत्तरी राज्यों में पाया जाता है। इस समाज की स्थापना 15वीं शताब्दी में गुरु जंभेश्वर (जांभोजी महाराज) ने की थी, जिन्हें बिश्नोई लोग भगवान विष्णु का अवतार मानते हैं। गुरु जंभेश्वर ने 29 सिद्धांतों के आधार पर इस समाज की नींव रखी, जिनमें से "बीस" का अर्थ है 20 और "नोई" का अर्थ है 9। ये सिद्धांत बिश्नोई समाज को प्रकृति के साथ सद्भाव में जीने, दयालुता और अहिंसा का पालन करने की शिक्षा देते हैं।

बिश्नोई समाज की एक प्रमुख विशेषता उनकी वन्यजीव और वनस्पति संरक्षण की गहरी निष्ठा है। गुरु जंभेश्वर ने अपने अनुयायियों को पेड़ों और वन्यजीवों की रक्षा करने का संदेश दिया, खासकर काले हिरण (ब्लैकबक) की, जिसे वे पवित्र मानते हैं। बिश्नोई समाज ने सदियों से जंगलों और जानवरों की सुरक्षा के लिए अपना जीवन समर्पित किया है और उनकी यह परंपरा आज भी जीवित है। इस समाज को पर्यावरण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता के लिए सम्मानित किया जाता है और उनके प्रयासों को आधुनिक पारिस्थितिकी संरक्षण के प्रारंभिक उदाहरणों के रूप में देखा जाता है।

खेजरली नरसंहार: पर्यावरण इतिहास का एक महत्वपूर्ण मोड़
बिश्नोई समाज के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण घटना 1730 का खेजरली नरसंहार है। यह घटना उस समय की है जब जोधपुर के महाराजा अभय सिंह ने अपने महल के निर्माण के लिए खेजड़ी के पेड़ों को काटने का आदेश दिया। खेजड़ी का पेड़, जिसे शमी के नाम से भी जाना जाता है, राजस्थान के शुष्क क्षेत्रों में अत्यधिक महत्व रखता है। इस पेड़ की विशेषता यह है कि यह कठोर रेगिस्तानी परिस्थितियों में भी हरा-भरा रहता है और छाया, आश्रय, तथा पशुओं के लिए आहार प्रदान करता है।

जब राजा के सैनिक खेजड़ी पेड़ों को काटने के लिए खेजरली गाँव पहुँचे, तो बिश्नोई समाज ने इसका कड़ा विरोध किया। इस विरोध का नेतृत्व अमृता देवी बिश्नोई नामक एक साहसी महिला ने किया, जिन्होंने अपने तीन बेटियों के साथ पेड़ों की रक्षा के लिए अपनी जान देने का निर्णय लिया। अमृता देवी ने सैनिकों के सामने खड़े होकर कहा, "सिर सस्ता है, पेड़ नहीं।" यह वाक्य उनकी प्रकृति के प्रति अटूट निष्ठा को दर्शाता है। सैनिकों ने पहले तो उन्हें समझाने का प्रयास किया, लेकिन अमृता देवी अपने संकल्प पर अडिग रहीं। आखिरकार, सैनिकों ने उनका सिर काट दिया।

अमृता देवी और उनकी बेटियों के बलिदान की खबर जब अन्य बिश्नोई गाँवों तक पहुँची, तो सैकड़ों लोग खेजरली पहुँच गए और पेड़ों की रक्षा के लिए खड़े हो गए। कुल मिलाकर 363 लोग मारे गए, जिनमें महिलाएं, पुरुष और बच्चे शामिल थे। यह बलिदान पूरे समाज को झकझोर देने वाला था। 

इस घटना से प्रभावित होकर, महाराजा अभय सिंह ने तुरंत पेड़ों को काटने के आदेश को रद्द कर दिया और बिश्नोई समाज से माफी मांगी। इसके साथ ही, उन्होंने एक आदेश जारी किया जिसमें बिश्नोई ग्रामों के आसपास पेड़ काटने और वन्यजीवों के शिकार पर प्रतिबंध लगाया गया। 

 खेजरली नरसंहार की विरासत

खेजरली नरसंहार की विरासत आज भी बिश्नोई समाज और पर्यावरण संरक्षण के इतिहास में जीवित है। हर साल 11 सितंबर को इस बलिदान की याद में "वन शहीद दिवस" मनाया जाता है। 2013 में, भारत सरकार ने इस दिन को राष्ट्रीय वन शहीद दिवस के रूप में घोषित किया, जिससे इस घटना को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली।

बिश्नोई समाज के इस अद्वितीय योगदान ने न केवल स्थानीय पर्यावरण संरक्षण आंदोलनों को प्रेरित किया, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी इसका प्रभाव पड़ा। खेजरली नरसंहार की भावना को 1970 के दशक के चिपको आंदोलन में देखा जा सकता है, जहाँ उत्तराखंड के ग्रामीणों ने पेड़ों को गले लगाकर उन्हें कटने से बचाया। इसी प्रकार, बिहार-झारखंड के जंगल बचाओ आंदोलन (1980 के दशक) और कर्नाटक के अप्पिको आंदोलन (1983) जैसे विरोध प्रदर्शनों में भी बिश्नोई समाज के मूल्यों की झलक मिलती है।

लॉरेंस बिश्नोई: एक विवादास्पद व्यक्तित्व

बिश्नोई समाज की इस अद्वितीय विरासत के विपरीत, हाल के वर्षों में लॉरेंस बिश्नोई का नाम आपराधिक गतिविधियों के कारण मीडिया में प्रमुखता से आया है। लॉरेंस बिश्नोई एक गैंगस्टर है, जो हत्या और उगाही जैसे गंभीर अपराधों में संलिप्त पाया गया है। खासकर, बॉलीवुड अभिनेता सलमान खान और पंजाबी गायक सिद्धू मूसेवाला के साथ जुड़े विवादों ने.

लॉरेंस बिश्नोई की गतिविधियाँ उनके समाज की मूल-संहिता से पूरी तरह विपरीत हैं। बिश्नोई समाज जो शांति, अहिंसा और पर्यावरण संरक्षण के सिद्धांतों का पालन करता है, वह लॉरेंस बिश्नोई के आपराधिक जीवन से बिल्कुल मेल नहीं खाता। इस बात को समझना जरूरी है कि लॉरेंस बिश्नोई का जीवन उनके समाज की मूल भावनाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करता है, बल्कि वह एक अपवाद है। उनके अपराधों के कारण पूरे बिश्नोई समाज को दोषी ठहराना अनुचित है।

पर्यावरण संरक्षण में बिश्नोई समाज की भूमिका
लॉरेंस बिश्नोई की आपराधिक गतिविधियों के बावजूद, बिश्नोई समाज ने अपनी परंपराओं और मूल्यों को बनाए रखा है। उनके गुरू जंभेश्वर की शिक्षाएँ आज भी उनके जीवन का मार्गदर्शन करती हैं और बिश्नोई समाज पर्यावरण संरक्षण में सक्रिय भूमिका निभाता है। इस समाज के लोग न केवल वृक्षों और वन्यजीवों की रक्षा करते हैं, बल्कि उनके संरक्षण में अग्रणी भूमिका भी निभाते हैं। 

बिश्नोई समाज की वन्यजीवों के प्रति निष्ठा और विशेष रूप से काले हिरण की पूजा ने इस प्रजाति को विलुप्त होने से बचाया है। राजस्थान के थार रेगिस्तान में काले हिरण की संख्या में वृद्धि का श्रेय बिश्नोई समाज को दिया जाता है, जिन्होंने इसे संरक्षित करने के लिए अपना जीवन समर्पित किया है।

बिश्नोई समाज के योगदानों को भारत सरकार और अंतरराष्ट्रीय संगठनों द्वारा भी मान्यता दी गई है। उनकी स्थायी कृषि, जल संरक्षण और वन्यजीव संरक्षण की प्रथाएँ आज के पर्यावरणीय संकटों, जैसे जलवायु परिवर्तन और वनों की कटाई, का सामना करने के लिए आदर्श मानी जाती हैं।

बिश्नोई समाज का प्रभाव
बिश्नोई समाज का प्रभाव न केवल उनके गाँवों तक सीमित है, बल्कि उसने भारत और दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण आंदोलनों को प्रेरित किया है। चिपको आंदोलन के साथ-साथ जंगल बचाओ आंदोलन और अप्पिको आंदोलन जैसे कई प्रमुख आंदोलनों में बिश्नोई समाज की प्रेरणा देखी जा सकती है।

✍️...  रघुनाथ सिंह

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